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________________ पृष्ठ ६८५ " ६८६ 3. " ६८६ " " ६८७ " " १०३ ८८६ ३७ २ ६८७ ३९ २. ४२ १ ७ इस प्रकार........ परमाणु के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, अविभाजित ऐसा ही है। यावत् होता है। इतना ४३ ७, ८ आहार की वक्तव्यता है। शेष ४४ ३ उपपन्न होता है। " ६८७ :: :: ६८८ ६८८ " सूत्र पंक्ति अशुद्ध ३६ ६२, ६४ सर्व कर्कश........ ६६ ६८ सर्व मृदु......... ७० सर्व गुरु......... ७२ सर्व लघु ......... ७६ सर्व उष्ण........ ७८ ८० सर्व स्निग्ध......... सर्व रूक्ष......... २०,९२ देश कर्कश....... " ::::::: " (दोनों बार) ३६ १०२ स्पर्श के रे ४४ २, ३ होता है? पूर्ववत् ४५ १. ४५ ४ ४६ २ ४६ ४८ 1 ९४ १७, ९८ इसके पश्चात्......... ४८ " ४९ ४९ ५० ६८८ ५० " ३,४ ४ २ ३ ४ ५,७ २,३ हुआ। उपपन्न होता है। ४,५ हुआ। आहार करता है? शेष पूर्ववत् यावत् निक्षेप । ४, ५, ६ उपपात होता है। ३ है ? उपपन्न होता है, शेष....... इस प्रकार पृथ्वीकायिक की भांति समवहत होता है. शेष पूर्ववत् उपपात होता है। उपपन्न होता है ? शुद्ध यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। स्पर्श से यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। परमाणु चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, अविभाज्य ऐसा ही है यावत् होता है, इतना आहार वक्तव्य है, शेष उपपात करवाना चाहिए - उपपात वक्तव्य है। होता है० ? इसी प्रकार हुआ, उपपात करवाना चाहिए उपपात वक्तव्य है। हुआ, आहार करता है० ? शेष पूर्ववत् यावत् निक्षेपक (उपसंहार करना चाहिए) उपपन्न होता है ० ? शेष पृथ्वीकायिक की भांति वक्तव्यता समवहत हुआ उपपात करवाना चाहिए। है ०? शेष पूर्ववत् उपपात करवाना चाहिए। उपपन्न होता है ? इस प्रकार...... इस प्रकार........ (बीच) समवहत ज्ञातव्य है। शेष पूर्ववत् यावत् बीच में समवहतता ज्ञातव्य है यावत् शेष पूर्ववत् यावत् (मध्य भागों) समवघात ज्ञातव्य है, शेष पूर्ववत् पृष्ठ ६८९ ६८९५० ६८९ ६८९ "3 ६८९ " ६९० 22 323 32 ६९१ " सूत्र पंक्ति ५० 4666666 ५० ५० ५२ ५८ ५९ ५९ " ६६ " [of ww9 v " ६. बीच 3333 : : 0% ६ ५९ ६० ६५. ६५ ६६ शीर्षक ७ ८ ww बन्ध तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, वक्तव्यता, पूर्ववत् निरन्तर ७,८ विषय का, श्रुत- अज्ञान के विषय का, विभंग ज्ञान के विषय का, श्रुत- अज्ञान के विषय का, विभंगज्ञान के विषय का है यावत् बन्ध तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, भरत, पांच ऐरवत १० ~~~~~~~~~ १. (दोनों बार) ५. १, ४ पांच महाव्रत, ६. ५. ६९ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७९ शीर्षक करण पद ८१ ५. ५. तनुवातवलय है । ६. ७ अशुद्ध जा रहा है यावत् उपपन्न होना है। ३ ९१ शीर्षक ४ " ९४-९६ ३ आयुष्मान् श्रमण ! पांच महाव्रत चातुर्याम भरत में, पांच ऐरवत में चातुर्याम का विच्छेद सर्वत्र प्रज्ञप्त तक रहेगा। चातुर्वर्ण द्वादशांग गणिपिटक हैं देव रूप में वाणमन्तर ज्योतिष्क, ७ २. जघा चारण ३ लब्धि नामक लब्धि ५. ऐश्वर्य शाली यावत् जम्बूद्वीप द्वीप में द्वीप में यावत् उसका महर्द्धिक देव यावत् महा उस स्थान की प्रज्ञप्त है। उस स्थान नहीं होती। उस स्थान पृथ्वीकायिक की वैमानिकों वैमानिकों अन्तरों में तनुवात वलय शुद्ध जा रहा है (भ. १७/७८-८०) यावत् उपपन्न होता है। तीन प्रकार का बन्ध प्रज्ञप्त है, वक्तव्यता । पूर्ववत् । निरन्तर विषय का, श्रुत- अज्ञान के विषय का, विभंग ज्ञान के विषय का है। यावत् तीन प्रकार का बन्ध प्रज्ञप्त है, भरतों, पांच ऐरवतों आयुष्मन् श्रमण ! पंचमहाव्रतिक-चतुर्यामपंचमहाव्रतिक भरतों में, पांच ऐरवतों में चतुर्याम सर्वत्र ही व्यवच्छिन्न तक रहेगा, चतुर्वर्ण बारह अंगों वाला गणिपिटक है, देव-रूप में वानमन्तर, ज्योतिष्क, विद्या जंघा चारण-पद द्वीप में (भ. ६/७५) यावत् उसका महर्द्धिक देव (भ. १ / ३३९) यावत् महा जो उस स्थान की जघा चारण - लब्धि नामक लब्धि ऐश्वर्यशाली यावत् जम्बूद्वीप - द्वीप में प्रज्ञप्त है। जो उस स्थान नहीं होती। जो उस स्थान पृथ्वीकायिक उपपदन- उद्वर्तन पद वैमानिक वैमानिक पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६९५ ९६ २ ६९५ ९७ शीर्षक १,५ १. ४ १ ४. १०३ २ १०३ " " 2. " " " " " ६९५ १०३ " " " ६९६ १०४ । १ " 23 ६९६ ६९६ ६९६ " " " " 11 " " ९८ १०० " १०२ ". 2242266 " २ २ ३. १०५ शीर्षक १०६. २ ४. ४,८ ७,९ ५. " १०७ । १०८ १०७ | १ १०७ | २ १०७ । " २ ३. ३. १ ४ ४ ५ ५. ގ " ६९७ ११० ३ परप्रयोग से mr p ११० ४ अशुद्ध कहा जा रहा है- यावत् कहा जा रहा है- यावत् की नैरयिक अवक्तव्यक संचित हे यावत् किससे अल्प, उससे संख्येय-गुण उससे असंख्येय-गुण के अल्प बहुत्व की वक्तव्यता । किससे विशेषाधिक है ? उससे संख्येय गुण है। षट्क समर्जित-आदि-पद अनेक षट्क दो अथवा तीन, पाच कहा जा रहा है - यावत् की पृच्छा है, नोषट्क हैं, षट्क हैं। अनेक ६ सिद्ध की अनेक षट्क एक नोषट्ककहा जा रहा है - यावत् अनेक-षट्क-एक नोषट्क समर्जित हैं पांच अनेक षट्क एक हैं। इस प्रकार १०९ - सर्वत्र संख्येय-गुण १११ वनस्पतिकायिक की द्वीन्द्रिय की असंख्येय-गुण हैं। अनेकसंख्येय-गुण से पर प्रयोग कति संचित कहा जा रहा है यावत् कहा जा रहा है यावत् नैरयिकों अवक्तव्यक-संचित हे यावत् किनसे अल्प, उनसे संख्येय-गुणा उनसे असंख्येय-गुणा का अल्पबहुत्व (वक्तव्य है) । (एकेन्द्रिय-जीवों के यह अल्पबहुत्व नहीं होता।) किनसे विशेषाधिक हैं ? शुद्ध उनसे संख्येय हैं। षट्क समर्जित आदि पद अनेक षट्क दो अथवा तीन, पंचक हैं, षट्क हैं, अनेक कहा जा रहा है पूर्ववत् यावत् की - पृच्छा हैं, नोषट्क द्वीन्द्रिय -गुणा अनेक षट्क और एक नोषट्क(ऐसा कहा जा रहा है) यावत् (अनेक ? षट्क एक नोषट्क) समर्जित भी हैं ? पंचक अनेक षट्क और एक हैं। इस अपेक्षा से (यह कहा जा रहा है। यावत् (अनेक षट्क और एकनोषट्क) समर्जित भी हैं। इस प्रकार वनस्पतिकायिकों की सिद्ध संख्येय-गुणा असंख्येय-गुणा हैं, अनेक संख्येय-गुणा
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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