SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध ४४३, सं.गा. २ | १०.आत्मा । ..| १ | ३,८ | यथा-परिग्रहीत ४४३ १ ४ | रह रहे थे | सकुमाल हाथ पैर | रह रहा था | वक्तव्यता यावत् धर्म कहा, यावत् हुए विहरण करेंगे आकारवाला हुआ विहरण करूं उपवास करूं। ६ | ब्रह्मचारी रहूं सहाय्य निरपेक्ष करने लगा। ५ | करता हुआ। विहार कर रहा है। वन्दन नमस्कार कर आशन विहार करेंगे १ | बोला- देवानुप्रिय ४ | भोजन करता हुआ पाक्षिक विहरण करूं | प्रति जागरणा विहार करो। |विहरण कर रहा है। ७ | विहरण करो ८ | पाक्षिक | हुए विहरण किया। आकारवाला प्रदक्षिण वन्दन नमस्कार आएं वहां आकर | कहा था- देवानुप्रिय विहार करेंगे। विहार किया। १९| ३ | प्रियधर्मा है-दृढ़धर्मा है १९| ३ | सुदृढ़ जागरिका २० ५ | सुदृढ़ जागरिका २.१२. सुदृढ़-जागरिका १०. आत्मा ॥१॥ यथा-परिगृहीत रहते थे। सुकुमार-हाथ-पैर रहता था। वक्तव्यता (भ. ११/१७८) यावत् धर्म का निरूपण किया यावत् हुए रहेंगे। आकार वाला हुआ रहूं। उपवास करूं, ब्रह्मचारी रहूं, सहाय्य-निरपेक्ष करता हुआ रहता है। करता हुआ रहता है। वन्दन-नमस्कार कर अशन रहेंगे। बोला-देवानुप्रिय | भोजन करता करता, पाक्षिक او शतक १२ पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध २७,७,८ | छेदन करेगा, कर छेदन करेगा, छेदन कर, ९ सौधर्म कल्प | सौधर्म-कल्प ९ | देवरूप देव-रूप ६ -सकुमाल हाथ-पैर वाली -सुकुमार-हाथ-पैर वाली ७ जानने वाली, यावत् जानने वाली (भ. २/०४) ८ | विहार कर रही थी रहती थी। ०,११ सुकुमार हाथ पैर वाली सुकुमार-हाथ-पैर वाली १२ | रह रही थी रहती थी १ | उस काल उस समय | उस काल और उस समय ४-५ | जैसे कोणिक राजा की वक्तव्यता | जैसे कणिक वैसे ही सब (वक्तव्य (उववाई सू. ५६-५९) वैसे ही है) (ओवाइयं, सू. ५६-५९) यावत् | सम्पूर्ण वर्णन यावत् | ७ | अनुगामिकता आनुगामिकता | ३४ | १ | हृष्ट-तुष्ट चित्तवाली, हष्ट-तुष्ट-चित्त वाली, २ | प्रीतिपूर्ण मनवाली परम-सौमनस्य- प्रीतिपूर्ण-मन वाली, परमयुक्त, सौमनस्य-युक्त ३ आकारवाली आकार वाली १,२ | शीघ्र गति क्रिया की दक्षता से युक्त शीघ्न-गति-क्रिया की दक्षता से युक्त यावत् (भ. ९/१४१) यावत् २ | तैयर कर शीघ्र उपस्थित करो। तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो, २ | अल्पभर बहुमूल्य अल्पभार-बहुमूल्य २ | कुब्जा यावत् कुब्जा (भ. ९/१४४) यावत् ४ |निकली। निकल कर जहां बाहरी निकली, निकल कर जहां बाहरी उपस्थानशाला उपस्थान-शाला १ | होकर होकर, २ |की वक्तव्यता यावत् (की वक्तव्यता) (भ. ९/१४६) यावत् २ | वंदन- नमस्कार वंदन-नमस्कार १,४ | हलका हलके १ करते है? करते हैं? ३ | परिमित, और परिमित और ५ उत्सर्पिण उत्सर्पिणी १ जीवों को जीवों का २ अच्छा है। अच्छा है, १ जा रहा है- कुछ जा रहा है कुछ ३ | अधार्मिक, (अधर्म का अनुगमन |अधार्मिक (अधर्म का अनुगमन करने वाले) करने वाले), | ७ | परितप्त करने के लिए, परितप्त करने के लिए ,, | ८ | वे स्वयं को, वे स्वयं को १२,१३ जाग्रत जागृत १५,१७] له रहूं। पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ४ | अच्छा है। अच्छा है। ६ | दुर्बल होने से स्वयं को, | दुर्बल होने से वे स्वयं को, ९ अच्छा है। अच्छा है। अच्छा है। अच्छा है, ये जीव, ये जीव ८ करते हैं। करते हैं, १० को दुःखी ने करने को दुःखी न करने | जीव क्या कर्म-बंध करता है? जीव क्या बंध करता है? १ जीव कर्म का बंध करता है? जीव क्या बंध करता है? १ | जीव क्या कर्म का बन्ध करता है? जीव क्या बंध करता है? था, यावत् था (भ. १/४-१०) यावत् ३ (३) के . (३) का १ | होते हैं उस होते हैं, उस ५ | दो द्विप्रदेशी दो द्विप्रदेशिक | परमाणु-पदुगल दूसरी परमाणु-पुद्गल, दूसरी तीन-तीन प्रदेशी तीन-त्रिप्रदेशिक | छह- प्रदेशी षट्प्रदेशिक ४५८ परमाणु-पुद्गल दूसरी परमाणु-पुद्गल, दूसरी | असंख्येय प्रदेशी स्कंध, असंख्येयप्रदेशिक स्कंध, इसी प्रकार चतुष्क-संयोग यावत् | इस प्रकार चतुष्क-संयोग यावत् असंख्यय संयोग। | असंख्येय-संयोग। संयोग । जैसे असंख्येय-प्रदेशी संयोग। ये सभी (भंग) जैसे असंख्येय स्कन्ध की वक्तव्यता प्रदेशिक स्कन्ध के बतलाए गए, १९ स्कन्ध की वक्तवयता, स्कन्ध के भी बतलाने चाहिए. | की वक्तव्यता (बतलाए गए) | की वक्तव्यता। बतलाने चाहिए। ज्योतिष्क, ज्योतिष्क | वैक्रिय-शरीर हैं, वहां वैक्रिय-शरीर है वहां | ६ सात सातों ही ४६५ ३ | विशेषाधिक है? विशेषाधिक हैं? -गुण है। -गुणा है। जैसे सातवें सातवें वक्तव्यता, वैसे ही सातवें | भांति सातवां। आठ स्पर्श ये आठ स्पर्श वाले ४६७ स्तनितकुमारों। स्तनितकुमार ४६७ | इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों की ४६७ ६ वायुकायिक की भांति वायुकायिकों की भांति -देवों ४६७ ११७ ३ | प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार प्रज्ञप्त है। इस प्रकार ४६८ | १० वर्ण रहित हैं। वर्ण-रहित हैं। ११८७ | अनागत-काल और सर्व-काल अनागत-काल भी और सर्व-काल भी | १२० शीर्षक | x कर्मतः विभक्ति-पद | १२३, ३३ दूर जाता है तब दूर जाता है, तब प्रतिजागरणा रहो। रहता है। ه ه (पाक्षिक हुए) रहते हैं। आकार वाला प्रदक्षिणा वन्दन-नमस्कार आएं, वहां आकर कहा था-देवानुप्रिय | रहेंगे। रहे। प्रियधर्मा है, दृढ़धर्मा है सुद्रष्टा-जागरिका सुद्रष्टा-जागरिका सुद्रष्टा-जागरिका ४६५ ४६७ ४६७ | ६ | मन्द-अनुभव २२६,७ | तीव्र-अनुभव २५ | २ | पूर्ववत ७ | नमस्कार किया मन्द-अनुभाव तीव्र-अनुभाव पूर्ववत् -नमस्कार किया, | १६ | वे जीवों का जागृत ५६ १ जा रहा है- कुछ वे जीव जागृत जा रहा है कुछ ४६९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy