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________________ भगवती सूत्र श. १२ : उ. ७ : सू. १३०-१३५ असंख्येय क्रोड़ाक्रोड़ योजन, इसी प्रकार पश्चिम दिशा में भी, इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी, इसी प्रकार ऊर्ध्व एवं अधो दिशा में भी असंख्येय क्रोड़ाक्रोड़ योजन लम्बा-चौड़ा है। १३१. भंते ! इस विशालतम लोक में कोई परमाणु - पुद्गल (मात्र) प्रदेश भी ऐसा है, जहां पर इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - इस विशालतम लोक में परमाणु- पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां पर इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो ? गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष सौ बकरियों के लिए एक बड़ा अजाव्रज (बकरी बाड़ा) तैयार करवाता है । वह वहां जघन्यतः एक, दो अथवा तीन उत्कृष्टतः हजार बकरियों का प्रक्षेप करता है। यदि उन बकरियों के लिए वहां प्रचुर घास और पानी हो तथा वे बकरियां जघन्यतः एक दिन अथवा तीन दिन, उत्कृष्टतः छह मास तक रहे। गौतम ! क्या उस अजाव्रज का कोई परमाणु- पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा रहता है, जो उन बकरियों के उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, पीव (रस्सी), शुक्र, शोणित, चर्म, रोम, सींग, खुर अथवा नखों से आक्रांत न हुआ हो ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम ! उस अजाव्रज का कोई परमाणु- पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जो उन बकरियों के उच्चार यावत् अथवा नखों से आक्रांत नहीं होता। वैसे ही इस विशालतम लोक में लोक का शाश्वत भाव, संसार - जन्म-मरण का अनादि भाव, जीव का नित्य भाव, कर्म - बहुत्व और जन्म-मरण के बाहुल्य की अपेक्षा परमाणु - पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां पर जन्म अथवा मरण न किया हो । इस जीव गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-इस विशालतम लोक में कोई परमाणु- पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो । अनेक अथवा अनंत बार उपपात पद १३३. भंते ! पृथ्वियां कितने प्रकार की प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक (भ. १/ २११-२५५) की वक्तव्यता है वैसे ही आवासों की वक्तव्यता यावत् अनुत्तर- - विमान यावत् अपराजित-सर्वार्थसिद्ध की वक्तव्यता । १३४. भंते ! क्या यह जीव इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक के रूप में उपपन्न - पूर्व है ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार । १३५. भंते ! क्या सब जीव इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, ४७२
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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