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________________ भगवती सूत्र श. ४१ : उ. २-४ : सू. २७-३५ २७. भन्ते! वे जीव जिस समय में त्र्योज होते हैं, क्या उस समय में वे कृतयुग्म होते हैं? जिस समय में वे कृतयुग्म होते हैं, क्या उस समय में वे त्र्योज होते हैं? (गौतम!) यह अर्थ संगत नहीं है। २८. (भन्ते! वे जीव क्या) जिस समय में त्र्योज होते हैं उस समय द्वापरयुग्म होते हैं? जिस समय द्वापरयुग्म होते हैं उस समय क्या वे त्र्योज होते हैं? । यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार राशियुग्म-कल्योज-नैरयिक-जीवों के विषय में भी बतलाना चाहिए, शेष उसी प्रकार बतलाना चाहिए यावत् 'वैमानिक-देवों' तक, केवल इतना अन्तर है-इन जीवों का उपपात सभी के विषय में जैसे पण्णवणा के छठे पद में अवक्रान्ति (सू. ७०-९८) में बतलाया गया है वैसे वक्तव्य हैं। २९. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। तीसरा उद्देशक ३०. भन्ते! राशियुग्म-द्वापरयुग्म-नैरयिक-जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं? इसी प्रकार पूरा उद्देशक बतलाना चाहिए, केवल इतना अन्तर है-इन जीवों का परिमाण दो अथवा छह अथवा दस अथव संख्येय अथवा असंख्येय होता है, इन जीवों का संवेध वैसा ही बतलाना चाहिए। (भ. ३५।११) ३१. भन्ते ! वे जीव जिस समय में द्वापरयुग्म होते हैं तो क्या उस समय में वे कृतयुग्म होते हैं? जिस समय में कृतयुग्म होते हैं तो क्या उस समय में वे द्वापरयुग्म होते हैं? यह अर्थ संगत नहीं हैं। इसी प्रकार राशियुग्म-त्र्योज-नैरयिक-जीवों के विषय में भी बतलाना चाहिए, इसी प्रकर राशियुग्म-कल्योज-नैरयिक-जीवों के विषय में भी बतलना चाहिए, शेष जैसा प्रथम उद्देशक में बतलाया गया है वैसा यावत् वैमानिक-देवों तक बतलाना चाहिए। ३२. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वे ऐसा ही है। चौथा उद्देशक ३३. भन्ते! राशियुग्म-कल्योज-नैरयिक-जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं....? इसी प्रकार पूरा उद्देशक बतलाना चाहिए, केवल इतना अन्तर है-इन जीवों का परिमाण एक अथवा पांच अथवा नव अथवा तेरह अथवा संख्येय अथवा असंख्येय होता है, इन जीवों का संवेध वैसा ही बतलाना चाहिए। (भ. ३५।११) ३४. भन्ते! वे जीव जिस समय में कल्योज होते हैं, तो क्या उस समय वे कृतयुग्म होते हैं? जिस समय में कृतयुग्म होते हैं तो क्या उस समय में वे कल्योज होते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार राशियुग्म-त्र्योज-नैरयिक-जीवों के विषय में भी बतलाना चाहिए, इसी प्रकार राशियुग्म-द्वापरयुग्म-नैरयिक-जीवों के विषय में भी बतलाना चाहिए, शेष जैसा प्रथम उद्देशक में बतलाया गया है वैसा यावत् 'वैमानिक-देवों' तक बतलाना चाहिए। ३५. भन्त! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। ९४९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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