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________________ श. ३४ : उ. २-११ : श. २ : उ. १ : सू. ४८-५५ भगवती सूत्र -एकेन्द्रिय-जीव समान आयुवाले और एक साथ उपपन्न हैं वे तुल्य-स्थिति वाले और तुल्य-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं। इनमें जो अनन्तर-उपपन्न-एकेन्द्रिय-जीव समान आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं वे तुल्य-स्थिति वाले और वेमात्र-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं। यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् 'वेमात्र-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं' तक। ४९. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। तीसरा उद्देशक ५०. भन्ते! परम्पर-उपपन्न(प्रथम समय को छोड़कर दूसरे, तीसरे आदि समय के)-एकेन्द्रिय -जीव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम! परम्पर-उपपन्न-एकेन्द्रिय-जीव पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे–पृथ्वीकायिक आदि (अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक) यावत् 'प्रत्येक के चार भेद बतलाने चाहिए' यावत् 'वनस्पतिकायिक' तक। ५१. भन्ते! परम्पर-उपपन्न-अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पूर्व (दिशा) के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उपपन्न होने की योग्यता प्राप्त) इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पश्चिम दिशा के चरमान्त में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उपपन्न होने योग्य हैं? (भन्ते! वह) इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा प्रथम उद्देशक (भ. ३४।२-३२) में बतलाया गया था वैसा यावत् ‘लोक के चरमान्त' तक बतलाना चाहिए। ५२. भन्ते! परम्पर-उपपन्न-बादर-पृथ्वीकायिक-जीवों के स्थान कहां प्रज्ञप्त हैं? गौतम! अपने स्थान की अपेक्षा से आठ पृथ्वियों में (परम्पर-उपपन्न-बादर-पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान हैं)। इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा प्रथम उद्देशक में बतलाया गया है, (वैसा) यावत् 'तुल्य-स्थिति वाले' तक बतलाना चाहिए। ५३. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। चौथा-ग्यारहवां उद्देशक ५४. इसी प्रकार शेष आठ उद्देशकों को बतलाना चाहिए यावत् 'अचरम' तक, (जैसे २६वें शतक में बतलाए गए हैं), केवल इतना अन्तर है-अनन्तरों के उद्देशक अनन्तर के सदृश बतलाने चाहिए और परम्परों के उद्देशक परम्पर के सदृश बतलाने चाहिए, चरम और अचरम भी इसी प्रकार बतलाने चाहिए। इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक (प्रथम एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक के) होते हैं। दूसरा शतक पहला-ग्यारहवां उद्देशक ५५. भन्ते! कृष्णलेश्य-एकेन्द्रिय-जीव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? ९१८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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