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________________ भगवती सूत्र श. ३४ : उ. १ : सू. ३३-३९ यावत् सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-जीवों के जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं वे सब एक प्रकार के हैं, अविशेष और नानात्व-रहित हैं, सम्पूर्ण-लोक में व्याप्त बतलाये गये हैं, हे श्रमणायुष्मन्! ३४. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीवों के कितनी कर्म-प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं? गौतम! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीवों के आठ कर्म-प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-जीवों के चार भेदों में (अपर्याप्त-सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायिक, पर्याप्त-सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायिक, अपर्याप्तबादर-एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायिक, पर्याप्त-बादर-एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायिक जैसे एकेन्द्रिय-शतक (भ. ३३।६-८) में बतलाया गया है यावत् ‘बादर-वनस्पतिकायिक-जीवों के पर्याप्तक' तक। ३५. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीवों के कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है? गौतम! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव सप्तविध-बन्धक भी होते हैं, अष्टविध-बन्धक भी होते हैं, जैसे एकेन्द्रिय-शतक (भ. ३३।९-११) में बतलाया गया है यावत् ‘बादर-वनस्पतिकायिक-जीवों' तक। ३६. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव कितनी कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं? गौतम! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव चौदह कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं जैसे-ज्ञानावरणीय, जैसे एकेन्द्रिय-शतक (भ. ३३।१२-१३) में बतलाया गया है यावत् (पुरुषवेदावघ्य) तक। इसी प्रकार यावत् ‘बादर-वनस्पतिकायिक-जीवों के पर्याप्तक' तक। ३७. भन्ते! एकेन्द्रिय-जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं क्या नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं? जैसे पण्णवणा के छठे पद अवक्रान्ति (सू. ८२-८५) में पृथ्वीकायिक जीवों का उत्पाद बतलाया गया है वैसा वक्तव्य है। ३८. भन्ते! एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात प्रज्ञप्त हैं? गौतम! एकन्द्रिय जीवों के चार समुद्घात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना-समुद्घात यावत् वैक्रिय-समुद्घात। (वेदना, मारणान्तिक, कषाय और वैक्रिय) ३९. भन्ते! तुल्य-स्थिति वाले (अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा से समान आयुष्य वाले) एकेन्द्रिय-जीव क्या तुल्य-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं (अर्थात् परस्पर की अपेक्षा से तुल्य-कर्म-बन्ध वाले हैं और पूर्वकाल में बन्धे हुए कर्म की अपेक्षा से अधिकतर कर्म बन्ध करते हैं)? तुल्य-स्थिति वाले एकेन्द्रिय-जीव क्या वेमात्र-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं (अर्थात् परस्पर की अपेक्षा से विषम परिमाण में कर्म-बन्ध वाले हैं और पूर्वकाल में बन्धे हुए कर्म की अपेक्षा से अधिकतर कर्म बन्ध करते हैं)? वेमात्र-स्थिति वाले (अर्थात् परस्पर की अपेक्षा से विषम मात्रा में स्थिति वाले) एकेन्द्रिय-जीव क्या तुल्य-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं (अर्थात् परस्पर की अपेक्षा से तुल्य कर्म बन्ध वाले हैं और पूर्वकाल में बन्धे हुए ९१५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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