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________________ भगवती सूत्र श. ३४ : उ. १: सू. १५-१८ (अन्तराल - गति) से उत्पन्न होता है । (अधो- लोक क्षेत्र में त्रस - नाल के बाहर पूर्व आदि दिशा मर कर प्रथम समय में त्रस-नाल में प्रविष्ट होता है, दूसरे समय में ऊर्ध्व-गति करता है तथा उसी प्रतर में पूर्व अथवा पश्चिम में जब उत्पत्ति होती है तब अनुश्रेणी में गति कर तृतीय समय में उत्पन्न होता है ।) जो भव्य विश्रेणी के द्वारा पृथ्वीकायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त है) वह चार समय वाली विग्रह गति ( अन्तराल - गति) से उत्पन्न होता है। (जब त्रस-नाल के बाहर वायव्य आदि विदिशा में मरता है तब प्रथम समय में पश्चिम अथवा उत्तर दिशा में जाता है, दूसरे समय में त्रस-नाल में प्रविष्ट होता है, तृतीय समय में ऊर्ध्व-गति करता है, तथा चतुर्थ समय में अनुश्रेणी में जाकर पूर्व आदि दिशा में उत्पन्न होता है ।) यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् 'उत्पन्न होता है' तक। (जो जीव अधो- लोक क्षेत्र में त्रस - नाल बाहर मृत्यु को प्राप्त होता है वह यदि ऊर्ध्व - लोक - क्षेत्र में त्रस-नाल के बाहर विश्रेणी में (विदिशा में) उत्पन्न हो, तो वह चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल - गति) के द्वारा उत्पन्न होता है ।) इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने के विषय में भी, इसी प्रकार यावत् 'पर्याप्त सूक्ष्म - तेजस्कायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने' तक वक्तव्य है । क्षेत्र में मारणान्तिक-समुद्घात १६. भन्ते ! अपर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव अधो-लोक - क्षेत्र की (स) - नाल के बाहर के समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य ( अपर्याप्त- बादर-तेजस्कायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त ) समय क्षेत्र में अपर्याप्त- बादर-तेजस्कायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होता है, भन्ते ! वह कितने समय वाली विग्रह- गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है ? - - गौतम ! वह जीव दो समय वाली अथवा तीन समय वाली विग्रह - गति ( अन्तराल - गति) के द्वारा उत्पन्न होता है । १७. यह किस अपेक्षा से ? गौतम ! मैंने इस प्रकार सात श्रेणियां प्रज्ञप्त की हैं, जैसे- १. ऋजुआयता यावत् अर्धचक्रवाला (भ. ३४।३) । एकतोवक्रा श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह जीव दो समय वाली विग्रह - गति ( अन्तराल - गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। द्वितोवक्रा श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह जीव तीन समय वाली विग्रह - गति (अन्तराल - गति) के द्वारा उत्पन्न होता है । यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है। इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक-जीव के रूप में भी उत्पन्न करवाना चाहिए। वायुकायिक- और वनस्पतिकायिक- जीवों के रूप में चार भेदों के द्वारा वैसा ही उत्पन्न करवाना चाहिए जैसा अप्कायिक- जीवों के रूप में करवाया गया था । (भ. ३४ । १३) इसी प्रकार जैसा अपर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव का गमक बतलाया गया है उसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव का भी बतलाना चाहिए, उसी प्रकार बीस स्थानों में उत्पन्न करवाना चाहिए। (भ. ३४ । १३) १८. (भन्ते ! अपर्याप्त- बादर - पृथ्वीकायिक-जीवों के विषय में पृच्छा ? (भ. ३४।१३)) अधो-लोक-क्षेत्र की (त्रस) - नाल के बाहर के क्षेत्र में मारणान्तिक- समुद्घात से समवहत होता है ? (भ. ३४ । १४ ) इसी प्रकार बादर - पृथ्वीकायिक- जीव के पर्याप्तक और ९०९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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