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________________ श. २६ : उ. १: सू. १७,१९ भगवती सूत्र १७. भन्ते! लेश्या-युक्त नैरयिक-जीव ने पाप कर्म का बन्ध किया था....? (भ. २६/१) पूर्ववत्। (भ. २६/१६) इसी प्रकार कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या वाले नैरयिक की वक्तव्यता। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्-दृष्टि, मिथ्या-दृष्टि और सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि, ज्ञानी-आभिनिबोधिक-ज्ञानी श्रुत-ज्ञानी और अवधि-ज्ञानी, अज्ञानी-मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी, विभंग-ज्ञानी, आहार-संज्ञोपयुक्त नैरयिक-जीव यावत् परिग्रह-संज्ञोपयुक्त, सवेदक और नपुंसक-वेदक, कषाय-सहित नैरयिक जीव यावत् लोभ-कषाय-सहित सयोगी, मन-योगी, वचन-योगी नैरयिक-जीव और काय-योगी, साकार-उपयोग-युक्त और अनाकार-उपयोग-युक्त नैरयिक की इन सभी पदों में प्रथम, द्वितीय भंग वक्तव्य है। इसी प्रकार असुरकुमार की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है-तेजो-लेश्य, स्त्री-वेदक वक्तव्य है, नपुंसक-वेदक वक्तव्य नहीं है, शेष पूर्ववत्। सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक में भी, अपकायिक में भी यावत् पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव की भी वक्तव्यता। सर्वत्र जीव के द्वितीय भंग वक्तव्य है। केवल इतना विशेष है जिसके जो लेश्या हैं वे वक्तव्य हैं। दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद और योग जिसमें जो प्राप्त हैं वे भणितव्य हैं, शेष पूर्ववत्। जीव-पद की वक्तव्यता है वही मनुष्य के विषय निरवशेष वक्तव्य है। वानमन्तर-देव की (भ. २६/१७) ज्योतिष्क-देव की और वैमानिक-देव की असुरकुमार की भांति वक्तव्यता। उसी प्रकार वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-जिसमें जो लेश्याएं हैं वे ज्ञातव्य हैं। शेष पूर्ववत् । जीव-आदि का ज्ञानावरणीय-आदि-कर्म की अपेक्षा बंध-अबंध-पद १८. भन्ते! क्या जीव ज्ञानावरणीय-कर्म का बन्ध करता था, कर रहा है, करेगा? जैसे पाप-कर्म की वक्तव्यता, वैसे ही ज्ञानावरणीय-कर्म की भी वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है-जीव-पद और मनुष्य-पद में कषाय-सहित जीव में यावत् लोभ-कषाय-सहित जीव में प्रथम, द्वितीय भंग वक्तव्य है, अवशेष पूर्ववत्। यावत् वैमानिक। इसी प्रकार दर्शनावरणीय -कर्म का दण्डक भी अविकल रूप से वक्तव्य है। १९. भन्ते! क्या जीव ने वेदनीय-कर्म का बन्ध किया था.....? पृच्छा। (भ. २६/१८) गौतम! कोई जीव वेदनीय-कर्म का बन्ध करता था, कर रहा है, करेगा। कोई जीव वेदनीय-कर्म का बन्ध करता था, कर रहा है, नहीं करेगा। कोई जीव वेदनीय-कर्म का बन्ध करता था, नहीं कर रहा है और नहीं करेगा। इसी प्रकार सलेश्य जीव में भी तृतीय भंग को छोड़कर पूर्ववत् वक्तव्यता। कृष्ण-लेश्य जीव यावत् पद्म-लेश्य जीव में द्वितीय भंग की वक्तव्यता। शुक्ल-लेश्य जीव में तृतीय भंग को छोड़कर शेष तीन भंग की वक्तव्यता। अलेश्य जीव में केवल चरम भंग की वक्तव्यता। कृष्णपाक्षिक में प्रथम, द्वितीय भंग की वक्तव्यता। इसी प्रकार सम्यग्-दृष्टि जीव में (तृतीय भंग को छोड़कर) शेष तीन भंग वक्तव्य हैं। मिथ्या-दृष्टि और सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि जीव में प्रथम, द्वितीय भंग की वक्तव्यता। ज्ञानी में तृतीय भंग को छोड़कर शेष तीन भंग की वक्तव्यता। आभिनिबोधिक-ज्ञानी में प्रथम, द्वितीय भंग की वक्तव्यता। केवल-ज्ञानी में तृतीय भंग छोड़कर शेष तीन भंग की वक्तव्यता। इसी प्रकार नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदक, कषाय-सहित, साकार-उपयोग-युक्त जीव-इनमें तृतीय भंग को छोड़कर ८६८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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