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श. २५ : उ. ७ : सू. ५५२-५५६
भगवती सूत्र ९. अव्यक्त–अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना। १०. तत्सेवी-आलोचना देने वाले जिन दोषों का स्वयं सेवन करते हैं, उनके पास उन दोषों की आलोचना करना। ५५३. दस स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार अपने दोष की आलोचना करने के योग्य होता है, जैसे-१. जाति-सम्पन्न, २. कुल-सम्पन्न, ३. विनय-सम्पन्न, ४. ज्ञान-सम्पन्न, ५. दर्शन-सम्पन्न, ६. चारित्र-सम्पन्न, ७. क्षान्त, ८. दान्त, ९. अमायावी १०.
अपश्चानुतापी-अपराध की आलोचना कर पश्चात्ताप न करने वाला। ५५४. आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है जैसे-१.
आचारचान्–ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों से युक्त। २. आधारवान्-आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला। ३. व्यवहारवान्-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहारों को जानने वाला। ४. अपव्रीडक-आलोचना करने वाले व्यक्ति में, वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके, वैसा साहस उत्पन्न करने वाला। ५. प्रकारी-आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला। ६. अपरिश्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रगट न करने वाला। ७. निर्यापक-बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके-ऐसा सहयोग देने वाला। ८. अपायदर्शी-प्रायश्चित्त-भङ्ग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला। सामाचारी-पद ५५५. सामाचारी दस प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे
१. इच्छा–कार्य करने या कराने में इच्छाकार का प्रयोग। २. मिथ्या भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। ३. तथाकार-आचार्य के वचनों को स्वीकार करना। ४. आवश्यकी–उपाश्रय के बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य के लिए जाता हूं' कहना। ५. निषीधिका–कार्य से निवृत्त होकर आए तब 'मैं निवृत्त हो चुका हूं' कहना। ६. आपृच्छा-अपना कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ७. प्रतिपृच्छा दूसरों का कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ८. छन्दना-आहार के लिए साधर्मिक साधुओं को आमंत्रित करना। ९. निमंत्रणा-मैं आपके लिए आहार आदि लाऊ'-इस प्रकार गुरु आदि को निमंत्रित करना। १०. उपसंपदा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना। ये दस प्रकार की सामाचारी से संसार से तीर्ण होते हैं। प्रायश्चित्त-पद ५५६. प्रायश्चित्त दस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे
१. आलोचना-योग्य-गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन। २. प्रतिक्रमण-योग्य–'मिथ्या मे दुष्कृतम्' मेरी दुष्कृत निष्फल हो इसका भावनापूर्वक उच्चारण। ३. तदुभय-योग्य आलोचना और प्रतिक्रमण। ४. विवेक-योग्य-अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग। ५. व्युत्सर्ग-योग्य-कायोत्सर्ग। ६. तप-योग्य-अनशन, ऊनोदरी आदि। ७. छेद
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