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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. २१ : सू. ३०७-३१० ३०७. यदि ग्रैवेयक - कल्पातीत वैमानिक - देवों से उत्पन्न होते हैं तो अधो- अधोवर्ती ग्रैवेयक-कल्पातीत-वैमानिक-देवों से उत्पन्न होते हैं यावत् ऊर्ध्व ऊर्ध्ववर्ती ग्रैवेयक- कल्पातीत- वैमानिक -देवों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! अधो-अधोवर्ती ग्रैवेयक यावत् ऊर्ध्व ऊर्ध्ववर्ती ग्रैवेयक - कल्पातीत वैमानिक- देवों से उत्पन्न होते हैं । ३०८. भन्ते ! जो ग्रैवेयक देव मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले जीव के रूप में उत्पन्न होगा ? - गौतम ! जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ) - वर्ष, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व स्थिति वाले जीव के रूप में उत्पन्न हो सकता है। शेष ( संहनन आदि वाले) जैसी आनत देव की वक्तव्यता बतलाई गई वैसे ही बतलाना चाहिए, केवल इतना विशेष है - अवगाहना - ग्रैवेयक - देवों के एक भवधारणीय- शरीर ( वैक्रिय - शरीर) होता है, उसकी अवगाहना जघन्यतः अंगुल -के-असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः दो-रत्नी ( दो हाथ ) । संस्थान - एक भवधारणीय- शरीर होता है वह समचतुरस्र - संस्थान से संस्थित प्रज्ञप्त है । ( समुद्घात) ग्रैवेयक देव के पांच समुद्घात प्रज्ञप्त हैं, जैसे - वेदना - समुद्घात यावत् तेजस्- समुद्घात, किन्तु वे निश्चित ही वैक्रिय - और तेजस्- समुद्घात के द्वारा न समवहत हुए, न समवहत होते हैं, न समवहत होंगे (लब्धि की अपेक्षा से पांच समुद्घात होते हैं, किन्तु प्रयोजन के अभाव के कारण इनमें से वैक्रिय और तेजस् - ये दो समुद्घात नहीं करते ) । स्थिति ओर अनुबन्ध - जघन्यतः बाईस सागरोपम, उत्कृष्टतः इकतीस सागरोपम। शेष ( संहनन आदि) आनत - देव की तरह उसी प्रकार बतलाना चाहिए। (कायसंवेध) काल की अपेक्षा से - जघन्यतः पृथक्त्व - ( दो से नौ ) - वर्ष - अधिक- बाईस - सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-कोटि- पूर्व-अधिक तिरानवें- सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति आगति करता है। इसी प्रकार शेष आठों ही गमकों में बतलाना चाहिए, केवल इतना विशेष है— स्थिति और कायसंवेध उपयोग लगाकर जानना चाहिए। अडसठवां आलापक: मनुष्यों में विजय आदि चार अनुत्तरविमान के देवों का उपपात - आदि ३०९. यदि अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत वैमानिक - देवों से मनुष्य में उत्पन्न होते हैं तो क्या विजय- अनुत्तरोपपातिक - देवों से उत्पन्न होते हैं ? वैजयन्त - अनुत्तरोपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक - देवों से उत्पन्न होते हैं ? ३१०. गौतम ! विजय - अनुत्तरोपपातिक- यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक -देवों से उत्पन्न होते हैं। भन्ते। विजय-, वैजयन्त-, जयन्त- और अपराजित - देव, जो मनुष्य उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है? इसी प्रकार ग्रैवेयक देवों की भांति वक्तव्यता (भ. २४ / ३०८), केवल इतना विशेष है – अवगाहना – जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः एक रत्नी । ये सम्यग्- दृष्टि होते हैं, मिथ्या-दृष्टि नहीं होते, सम्यग् - मिथ्या-दृष्टि नहीं होते। ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं होते, नियमतः तीन ज्ञान वाले होते हैं, जैसे- अभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुत- ज्ञानी और अवधि- ज्ञानी । स्थिति - जघन्यतः इकतीस सागरोपम, उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम। शेष ७६९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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