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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. २० : सू. २४३,२४४ में बतलानी चाहिए। उत्तरवैक्रिय में भवधारणीय से दुगुनी बतलानी चाहिए। सातवीं नरक में उत्तरवैक्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार धनुष्य है। तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध पूर्ववत् वक्तव्य है। इसी प्रकार नौ ही गमक यथोचित वक्तव्य हैं। इसी प्रकार छट्ठी पृथ्वी तक, केवल इतना विशेष है-अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और कायसंवेध ज्ञातव्य है। छियालीसवां आलापक : तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-जीवों में सातवीं नरक के नैरयिकों का उपपात-आदि २४४. भन्ते! अधःसप्तमी-पृथ्वी का नैरयिक जो पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है? इसी प्रकार नौ गमक वक्तव्य हैं (भ. २४/२४३), केवल इतना विशेष है-अवगाहना, लेश्या, स्थिति और अनुबन्ध ज्ञातव्य है। कायसंवेध–भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः छह भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। प्रथम छह गमकों में (काय-संवेध की अपेक्षा से) जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः छह भव-ग्रहण करता है। अन्तिम तीन गमकों में जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः चार भव-ग्रहण। लब्धि नौ ही गमकों में प्रथम गमक की भांति वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-स्थिति विशेष और कालादेशद्वितीय गमक में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-अन्तर्मुहूर्त-अधिक-छासठ-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता तीसरे गमक में जघन्यतः कोटि-पूर्व-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम......। चौथे गमक में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम..... । पांचवें गमक में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-अन्तर्मुहूर्त-अधिक-छासठ-सागरोपम.....। छटे गमक में जघन्यतः एक-कोटि-पूर्व-अधिक-बाईस-सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम.....। सातवें गमक में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-तेतीस-सागरोपम, उत्कृष्टतः दो कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम..... । आठवें गमक में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-तेतीस-सागरोपम, उत्कृष्टतः दो-अन्तर्मुहूर्त-अधिक-छासठ-सागरोपम.....। नवमें गमक में जघन्यतः एक-कोटि-पूर्व-अधिक-तेतीस-सागरोपम, उत्कृष्टतः दो-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता ७५५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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