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________________ श. २४ : उ. १२ : सू. २०३-२०९ (चौथे से छट्ठे गमक तक) मध्यम तीनों ही गमकों (चौथे, पांचवें और छट्ठे) में लब्धि संज्ञी - पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक -जीवों के समान वक्तव्य है । शेष पूर्ववत् अविकल रूप से वक्तव्य है । (सातवें से नवें गमक तक) भगवती सूत्र अन्तिम तीन गमक (सातवां, आठवां और नौवां) इसी के औधिक गमकों की भांति वक्तव्य हैं, केवल इतना विशेष है - अवगाहना जघन्यतः पांच सौ धनुष, उत्कृष्टतः भी पांच । स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः कोटि- पूर्व, उत्कृष्टतः भी कोटि- पूर्व । शेष पूर्ववत् । तेतीसवां आलापक : पृथ्वीकायिक-जीवों में भवनपति देवों का उपपात - आदि २०४. (भन्ते!) यदि देवों से पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होते हैं तो - क्या भवनपति-देवों से उत्पन्न होते हैं, ? वाणमन्तर - देवों से उत्पन्न होते हैं, ज्योतिष्क -देवों से उत्पन्न होते हैं, वैमानिक - देवों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम! भवनपति देवों से भी उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक- देवों से भी उत्पन्न होते हैं । २०५. (भन्ते!) यदि भवनपति - देवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या - असुरकुमार - भवनपति देवों से उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार भवनपति देवों से उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमार-भवनपति-देवों से उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार - भवनपति - देवों गौतम ! उत्पन्न होते हैं। ( पहला गमक : औधिक और औधिक) २०६. भन्ते ! असुरकुमार देव जो पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? - गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है 1 २०७. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्यतः एक अथवा दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 1 २०८. भन्ते ! उन जीवों के शरीर किस संहनन वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! छह संहननों में से एक भी संहनन नहीं होता यावत् परिणमन करते हैं (भ. १ / २४५,२२४)। २०९. भन्ते ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! शरीर की अवगाहना दो प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे- भवधारणीय (जन्म से प्राप्त) और उत्तर - वैक्रिय (वैक्रिय - लब्धि से प्राप्त ) । जो भवधारणीय है वह जघन्यतः अंगुल -का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः सात रत्नी । जो उत्तरवैक्रिय है वह जघन्यतः अंगुल-का-संख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः एक लाख योजन । ७४८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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