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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. १२ : सू. १८१-१८६ -अधिक-एक-हजार-योजन, मध्य तीन गमक पृथ्वीकायिक-जीवों की भांति वक्तव्य है। कायसंवेध और स्थिति ज्ञातव्य है। तृतीय गमक में काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-बाईस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः एक-लाख-अट्ठाईस-हजार-वर्ष-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। इसी प्रकार कायसंवेध यथोचित वक्तव्य है। छब्बीसवां आलापक : पृथ्वीकायिक-जीवों में द्वीन्द्रिय-जीवों का उपपात-आदि १८२. यदि द्वीन्द्रिय-जीवों से पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त-द्वीन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं? अथवा अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं? गौतम! पर्याप्त-द्वीन्द्रिय से भी उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय से भी उत्पन्न होते हैं। (पहला गमक) १८३. भन्ते! द्वीन्द्रिय-जीव जो पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों के रूप में उत्पन्न होता गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः बाईस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होता है। १८४. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? गौतम! जघन्यतः एक अथवा दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं। सेवार्त-संहनन वाले होते हैं। उन जीवों की अवगाहना जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग उत्कृष्टतः बारह योजन। वे हुण्डक-संस्थान वाले होते हैं। लेश्याएं तीन । वे सम्यग्-दृष्टि भी होते हैं, मिथ्या-दृष्टि भी होते हैं, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नहीं होते। दो ज्ञान, सम्यग्-दृष्टि की अवस्था में होते हैं, अन्यथा दो अज्ञान नियमतः (मिथ्या-दृष्टि की अवस्था में) होते हैं। मन-योगी नहीं होते, वचन-योगी और काय-योगी भी होते हैं। उपयोग दोनों प्रकार के होते हैं। संज्ञाएं चार। कषाय चार। इन्द्रियां दो प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जिह्वा-इन्द्रिय-रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। समुद्घात-प्रथम तीन। शेष पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्य है (भ. २४/१६७), केवल इतना विशेष है-स्थिति-जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः बारह वर्ष। इसी प्रकार अनुबन्ध भी। शेष पूर्ववत्। भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कष्टतः संख्येय भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्महत. उत्कृष्टतः संख्येय काल-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (दूसरा गमक) १८५. वही जीव (द्वीन्द्रिय) जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होता है-प्रथम गमक की भांति वही सर्व वक्तव्यता। (तीसरा गमक) १८६. वही जीव (द्वीन्द्रिय) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होता है। (इस तृतीय गमक में) वही द्वीन्द्रिय की लब्धि वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा ७४३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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