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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. १: सू. १०८-११२ आठवां आलापक : तीसरी से छुट्टी नरक में संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त - -संज्ञी - मनुष्यों का उपपात - आदि इसी प्रकार यावत् छट्ठी पृथ्वी तक वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है - ( संहनन ) संज्ञी - -पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक की भांति क्रमशः एक-एक संहनन हीन होता है । (भ. २४ /७९) काल की अपेक्षा भी पूर्ववत् वक्तव्यता (भ. २४ /७९), इतना विशेष है - मनुष्य के गमक में मनुष्य की स्थिति ज्ञातव्य है । जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष - अधिक और उत्कृष्टतः कोटि- पूर्व-अधिक क्रमशः शर्करा - प्रभा से तमःप्रभा तक की स्थिति जोड़ कर बतलाना चाहिए । नवां आलापक : सातवीं नरक में संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त-संज्ञी - मनुष्यों का उपपात-आदि ( पहला गमक : औधिक और औधिक) १०९. भन्ते! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त संज्ञी मनुष्य जो अधः सप्तमी - पृथ्वी में नैरयिक के रूप उपपन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक रूप में उपपन्न होता है ? गौतम ! जघन्यतः बाईस सागरोपम की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ११०. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? अवशेष शर्कराप्रभा - पृथ्वी के गमक की भांति ज्ञातव्य है (भ. २४/१०५), इतना विशेष है - प्रथम संहनन - वज्र - ऋषभ - - नाराच संहनन वाले होते हैं, स्त्री-वेदक उपपन्न नहीं होते । शेष पूर्ववत् यावत् अनुबन्ध तक । भव की अपेक्षा दो भव-ग्रहण (एक मनुष्य का, दूसरा सातवीं नरक का) काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष - अधिक - बाईस सागरोपम, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व-अधिक-तेतीस- सागरोपम - इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति - आगति करते हैं। ( दूसरा गमक : औघिक और जघन्य ) १११. वही संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त संज्ञी - मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप उपपन्न होता है, वही वक्तव्यता (भ. २४ / ११० ) इतना विशेष है - नैरयिक की स्थिति और कायसंवेध ज्ञातव्य है । टिप्पण ( दूसरे गमक की तरह - स्थिति जघन्यतः बाईस सागरोपम, उत्कृष्टतः भी बाईस सागरोपम, कायसंवेध—जघन्यतः पृथक्त्व - ( दो से नौ)) - वर्ष - अधिक- बाईस - सागरोपम, उत्कृष्टतः कोटि- पूर्व-अधिक- बाईस सागरोपम) । (तीसरा गमक : औघिक और उत्कृष्ट ) ११२. वही संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी - मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप उपपन्न होता है, वही वक्तव्यता (भ. २४ / ११० ) इतना विशेष है - स्थिति और कायसंवेध तीसरे गमक की भांति ज्ञातव्य है । ७२८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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