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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. १ : सू. ७९,८१ - सागरोपम, उत्कृष्टतः चार-कोटि- पूर्व-अधिक - बारह - सागरोपम - इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति - आगति करते हैं । (दूसरे से नवें गमक तक) इस प्रकार रत्नप्रभा - पृथ्वी गमक सदृश ये नौ गमक वक्तव्य हैं, इतना विशेष है - सभी गमकों में भी नैरयिक की स्थिति और संवेध में सागरोपम वक्तव्य है । चौथा आलापक : तीसरी से छुट्टी नरक में संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी - तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-जीवों का उपपात - आदि इस प्रकार यावत् छट्ठी (तमा ) पृथ्वी तक । इतना विशेष है - जिस पृथ्वी में नैरयिक की जघन्यतः और उत्कृष्टतः जितनी स्थिति है, वह उसी क्रम से (कायसंवेध) चार गुणा करणीय है। बालुकाप्रभा-पृथ्वी में (उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम से) चतुर्गुण करने पर अट्ठाईस सागरोपम होती है। पंकप्रभा (पृथ्वी) में (दस सागरोपम से चतुर्गुण करने पर) चालीस सागरोपम, धूमप्रभा (पृथ्वी) में (सतरह सागरोपम से चतुर्गुण करने पर) अड़सठ सागरोपम, तमप्रभा (पृथ्वी) में ( बाईस सागरोपम से चतुर्गुण करने पर) अट्ठासी सागरोपम । संहनन - बालुकाप्रभा - पृथ्वी में उपपन्न होने वाले जीव पांच संहनन वाले होते हैं, जैसे - वज्र - - ऋषभ - नाराच संहनन वाले यावत् कीलिका - संहनन वाले। पंकप्रभा - पृथ्वी में उपपन्न होने वाले जीव चार संहनन वाले, धूमप्रभा-पृथ्वी में उपपन्न होने वाले जीव तीन संहनन वाले, तमा- पृथ्वी में उपपन्न होने वाले जीव दो संहनन वाले होते हैं, जैसे - वज्र - ऋषभ नाराच- संहनन वाले, ऋषभ - नाराच संहनन वाले । शेष पूर्ववत् । पांचवां आलापक : सातवीं नरक में संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी - तिर्यंच-पंचेन्द्रिय- जीवों का उपपात - आदि (पहला गमक : औधिक और औधिक) ८०. भन्ते ! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त संज्ञी - पञ्चेन्द्रिय - तिर्यग्योनिक - जीव, जो अधःसप्तमी-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, वह जीव कितने काल की स्थिति वाले जीव के रूप में उपपन्न होता ? गौतम ! जघन्यतः बाईस सागरोपम की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है । ८१. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार रत्नप्रभा - पृथ्वी की भांति नौ गमक वक्तव्य हैं, प्राप्ति भी वही वक्तव्य है, इतना विशेष है वे वज्र - ऋषभ - - नाराच संहनन वाले होते हैं। स्त्री - वेदक सातवीं नरक में उपपन्न नहीं होते, शेष पूर्ववत् यावत् अनुबन्ध तक (भ. २४/७९) । कायसंवेध-भव की अपेक्षा जघन्यतः तीन भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः सात भव-ग्रहण । काल की अपेक्षा जघन्यतः दो- अन्तर्मुहूर्त्त - अधिक- बाईस - सागरोपम, उत्कृष्टतः चार- -कोटि-पूर्व-अधिक-छासट्ट-सागरोपम - इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति - आगति करते हैं । ७२१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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