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________________ भगवती सूत्र (दूसरा गमक : औधिक और जघन्य ) २८. भन्ते! पर्याप्तक- असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जो रत्नप्रभा - पृथ्वी के जघन्य काल- स्थिति वाले नैरयिकों में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितनी काल स्थिति वाले नैरयिकों में उपपन्न होता है ? श. २४ : उ. १ : सू. २८-३४ गौतम ! जघन्यतः दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है । २९. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार वही वक्तव्यता निरवशेष कथनीय है यावत् अनुबन्ध तक । (भ. २४/८ - २६) ३०. भन्ते ! वह पर्याप्तक- असंज्ञी - पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव जघन्य काल स्थिति वाली रत्नप्रभा - पृथ्वी में नैरयिक होकर, पुनः पर्याप्तक- असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव के रूप में उपपन्न होता है - वह कितने काल तक रहता है? कितने काल तक वह गति - आगति करता है ? गौतम ! भव की अपेक्षा वह दो भव ग्रहण करता है - एक भव असंज्ञी - पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च का और दूसरा भव नारक का । काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त अधिक - दस हजार- वर्ष, उत्कृष्टतः दस हजार वर्ष - अधिक-एक-कोटि- पूर्व- इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है । (तीसरा गमक : औघिक और उत्कृष्ट ) ३१. भन्ते! पर्याप्तक-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव, जो उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा - पृथ्वी के नैरयिकों में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितनी काल स्थिति वाले नैरयिकों में उपपन्न होता है ? गौतम ! जघन्यतः पल्योपम-के-असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले उत्कृष्टतः भी पल्योपम- असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उपपन्न होता है । ३२. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? शेष पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् (भ. २४/८-२६) अनुबन्ध तक । ३३. भन्ते ! वह पर्याप्तक- असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव उत्कृष्ट काल स्थिति वाली रत्नप्रभा - पृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः पर्याप्तक- असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक के रूप में उत्पन्न होता है - वह कितने काल तक रहता है? कितने काल तक वह गति आगति करता है ? गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव ग्रहण करता है - एक भव असंज्ञी - पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक का और दूसरा भव नारक का । काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त-अधिक-पल्योपम-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः कोटि- पूर्व-अधिक- पल्योपम का असंख्यातवां-भाग - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक वह गति - आगति करता है । (चौथा गमक : जघन्य और औधिक) ३४. भन्ते ! जो पर्याप्तक- असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव जघन्य काल की स्थिति वाले ७१३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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