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________________ श. १८ : उ. ५ : सू. ९७-१०० भगवती सूत्र पांचवां उद्देशक वैक्रिय-अवैक्रिय-असुरकुमार-आदि-पद ९७. भंते! दो असुरकुमार एक असुरकुमारावास में असुरकुमार-देव के रूप में उपपन्न हुए। उनमें एक असुरकुमार देव द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय, और रमणीय होता है। एक असुरकुमार-देव द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय नहीं होता। भंते! यह इस प्रकार कैसे है? गौतम! असुरकुमार देव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वैक्रिय-शरीर-वाले, अवैक्रिय-शरीर वाले। जो वैक्रिय-शरीर-वाला असुरकुमार-देव हैं, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय होता है। जो अवैक्रिय-शरीर वाला असुरकुमार-देव है, वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय नहीं होता। ९८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो वैक्रिय-शरीर वाला है, पूर्ववत् यावत् रमणीय नहीं होता? गौतम! जैसे इस मनुष्य-लोक में दो पुरुष होते हैं एक पुरुष अलंकृत और विभूषित है, एक पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है। गौतम! इनमें से कौन पुरुष द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय होता है, कौन पुरुष द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय नहीं होता। वह पुरुष जो अलंकृत-विभूषित है अथवा वह पुरुष जो अलंकृत-विभूषित नहीं है? भगवन् ! जो अलंकृत-विभूषित है, वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय होता है, जो अलंकृत-विभूषित नहीं है, वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् रमणीय नहीं होता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् वैक्रिय न करने वाला असुरकुमार-देव रमणीय नहीं होता। ९९. भंते! दो नागकुमार एक नागकुमारावास में उपपन्न हुए पूर्ववत् यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक की वक्तव्यता। नैरयिक-आदि का महाकर्म-आदि-पद १००. भंते! दो नैरयिक एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न हुए। एक नैरयिक महा-कर्म वाला, महा-क्रिया वाला, महा-आश्रव वाला, महा-वेदना वाला होता है। एक नैरयिक अल्प-कर्म वाला, अल्प-क्रिया वाला, अल्प-आश्रव वाला, अल्प-वेदना वाला होता है। भंते! यह इस प्रकार कैसे है? गौतम! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक। जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है, वह महा-कर्म वाला यावत् महा-वेदना वाला होता है। जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है वह अल्प-कर्म वाला यावत् अल्प-वेदना वाला होता है। ६४०
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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