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________________ भगवती सूत्र श. १८ : उ. ३, ४ : सू. ८२-८८ ८२. भंते! नैरयिकों के द्वारा जो पाप कर्म कृत हैं, पूर्ववत् इस प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । ८३. भंते! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, भंते! उन पुद्गलों का भविष्य-काल में कितना भाग आहार-रूप में ग्रहण होता है, कितने भाग का निर्जरण करते हैं ? माकंदिक-पुत्र! असंख्येय भाग का आहार करते हैं, अनंत भाग का निर्जरण करते हैं । ८४. भंते! उन निर्जरित पुद्गलों पर कोई रुक सकता है ? यावत् करवट ले सकता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। आयुष्मन् श्रमण ! ये पुद्गल अनाहार कहे गए हैं, इस प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । ८५. भंते! वह ऐसा ही ह। भंते! वह ऐसा ही है । चौथा उद्देश जीवों का परिभोग- अपरिभोग-पद ८६. उस काल और उस समय में राजगृह नगर यावत् भगवान् गौतम ने इस प्रकार कहा—भंते! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्या - दर्शन - शल्य, प्राणातिपात-विरमण यावत् मिथ्या - दर्शन - शल्य - विरमण । पृथ्वीकायिक-जीव यावत् वनस्पतिकायिक- जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर-मुक्त जीव, परमाणु-पुद्गल, शैलेशी - प्रतिपन्नक अनगार, सब स्थूल शरीरधारी द्वीन्द्रिय आदि जीव-ये दोनों प्रकार के जीव- द्रव्य और अजीव द्रव्य जीवों के परिभोग में आते हैं ? · गौतम ! प्राणातिपात यावत् इन दो प्रकार के जीव द्रव्यों और अजीव - द्रव्यों में कुछ जीवों के परिभोग में नहीं आते। ८७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - प्राणातिपात यावत् परिभोग में नहीं आते ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्या - दर्शन - शल्य, पृथ्वीकायिक-जीव यावत् वनस्पतिकायिक- जीव, सर्व स्थूल शरीरधारी द्वीन्द्रिय आदि जीव-ये दोनों प्रकार के जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य जीवों के परिभोग में आते हैं। प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्या- दर्शन - शल्य-विवेक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् परमाणु-पुद्गल, शैलेशी - प्रतिपन्नक अनगार-ये दोनों प्रकार के जीव- द्रव्य और अजीव द्रव्य जीव के परिभोग में नहीं आते। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-प्राणातिपात यावत् परिभोग में नहीं आते। कषाय-पद ८८. भंते! कषाय कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! कषाय चार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - कषाय-पद (पण्णवणा, पद १४) निरवशेष वक्तव्य है यावत् लोभ के द्वारा निर्जरा करेंगे। ६३८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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