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________________ भगवती सूत्र श. १७ : उ. ५,६ : सू. ६५-७० पांचवां उद्देशक ईशान-पद ६५. भंते! देवराज देवेन्द्र ईशान की सुधर्मा-सभा कहां प्रज्ञप्त है? गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के बहुसम एवं रमणीय भूभाग से ऊर्ध्व में चंद्र, सूर्य, ग्रह-गण, नक्षत्र, तारा-रूप जैसे स्थान-पद (पण्णवणा, २। ५१) की भांति यावत् मध्य में ईशानावतंसक है। वह ईशानावतंसक- महाविमान साढ़े बारह लाख योजन का है। इस प्रकार जैसे दसवें शतक (भ. १०/९९) में शक्र-विमान की जो वक्तव्यता है, वह ईशान की निरवशेष वक्तव्य है यावत् आत्मरक्षक। स्थिति सातिरेक दो सागरोपम है। शेष पूर्ववत् यावत् देवराज देवेन्द्र ईशान देवराज देवेन्द्र ईशान हैं। ६६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। छठा उद्देशक पृथ्वीकायिक-आदि का देश-सर्व-मारणान्तिक-समुद्घात-पद ६७. भंते! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी पर पृथ्वीकायिक समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य सौधर्म-कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है। भंते! क्या पहले उपपन्न होकर पश्चात् स्थान को संप्राप्त करता है? पहले स्थान को संप्राप्त कर पश्चात् उपपन्न होता है? गौतम! पहले उपपन्न होकर पश्चात् स्थान को संप्राप्त करता है। पहले स्थान को संप्राप्त कर पश्चात् उपपन्न होता है। ६८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् पश्चात् उपपन्न होता है? गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के तीन समुद्घात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात। मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता हुआ देश-समवहत भी होता है, सर्व-समवहत भी होता है। देश से समवहत होता हुआ पहले स्थान को संप्राप्त कर पश्चात् उपपन्न होता है। सर्व से समवहत होता हुआ पहले उपपन्न होकर पश्चात् स्थान को संप्राप्त करता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् पश्चात् उपपत्र होता है। ६९. भंते! क्या पृथ्वीकायिक इस रत्नप्रभा-पृथ्वी पर समवहत होता है, समवहत होकर ईशान-कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने के योग्य है? ईशान में भी पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् अच्युत, ग्रैवेयक-विमान में, अनुत्तर-विमान में, इसी प्रकार ईषत्-प्राग्भारा में। ७०.भंते! पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभा-पृथ्वी पर समवहत होता है, समवहत होकर सौधर्म-कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने के योग्य है? इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा के पृथ्वीकायिक का उपपात बतलाया गया है। वैसे ही शर्कराप्रभा के पृथ्वीकायिक का उपपात भी वक्तव्य है यावत् ईषत्-प्राग्भारा में। इस प्रकार जैसे ६२३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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