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________________ भगवती सूत्र श. १६ : उ. ५ : सू. ६२-६७ आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वे मौन रहे। ६३. गंगदत्त देव ने श्रमण भगवान् महावीर को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा-भंते! तुम सब जानते हो, सब देखते हो, सब ओर से जानते हो, सब ओर से देखते हो, सब काल को जानते हो, सब काल को देखते हो, सब भावों को जानते हो, सब भावों को देखते हो। देवानुप्रिय मेरे पूर्व और पश्चात् को जानते हैं-मुझे इस प्रकार दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देवानुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है, इसलिए मैं देवानुप्रिय गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रथों को भक्तिपूर्वक दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव, दिव्य बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि दिखलाना चाहता हूं। यह कहकर बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि का उपदर्शन किया, उपदर्शन कर यावत् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। ६४. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन -नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! गंगदत्त देव की वह दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव कहां गया? कहां अनुप्रविष्ट हो गया? गौतम! शरीर में गया, शरीर में अनुप्रविष्ट हो गया। कूटागार-शाला दृष्टान्त यावत् शरीर में अनुप्रविष्ट हो गया। भंते ! गंगदत्त देव महान् ऋद्धि, महान् द्युति, महान् बल, महान् यश और महान् ऐश्वर्यशाली गंगदत्त देव का पूर्व-भव-पद ६५. भंते! गंगदत्त देव को वह दिव्य देव-ऋद्धि वह दिव्य देवद्युति, वह दिव्य देवानुभाव कैसे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुआ? यह पूर्व भव में कौन था? नाम क्या था? गौत्र क्या था? किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संबाध और सनिवेश में रहता था? इसने क्या दिया? क्या भोगा? क्या किया? क्या समाचरण किया? किस तथारूप श्रमण-ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन को सुना, अवधारण किया, जिससे गंगदत्त देव को वह दिव्य-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुआ? ६६. अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! उस काल और उस समय में इस जंबूद्वीप द्वीप में भारत-वर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर था–वर्णक। सहस्राम्रवन उद्यान-वर्णक। वहां हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त नाम का गृहपति रहता था-आढ्य यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभूत । ६७. उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अर्हत् आदिकर यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। उनके आगे-आगे आकाश में धर्मचक्र चलता था, उनके ऊपर आकाशगत छत्र, उनके पार्श्व में चामर डुलते थे। उनके आकाश जैसा स्वच्छ पादपीठ-सहित सिंहासन था, उनके आगे आगे धर्मध्वज चल रहा था। वे शिष्य गण से संपरिवृत होकर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम ६०१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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