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________________ भगवती सूत्र श. १६ : उ. २,३ : सू. ४१-४८ चैतन्य-अचैतन्य-कृत-कर्म-पद ४१. भंते! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं? अचैतन्य के द्वारा कृत हैं? गौतम! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। ४२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं? गौतम! जैसे पुद्गल जीवों के आहार के रूप में उपचित हैं, शरीर के रूप में उपचित हैं, कलेवर के रूप में उपचित हैं, वे उस-उस रूप में परिणत होते हैं। आयुष्मन् श्रमण! वैसे ही कर्म-पुद्गल कर्म-रूप में परिणत होते हैं, इसलिए कर्म अचेतन के द्वारा कृत नहीं हैं। जैसे पुद्गल दुःस्थान, दुःशय्या और दुर्निषद्या में उस-उस-रूप में (अशुभ-रूप में) परिणत होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! वैसे ही कर्म-पुद्गल भी कर्म-रूप में परिणत होते हैं, इसलिए कर्म अचैतन्य-कृत नहीं हैं। जैसे आतंक वध के लिए होता है, संकल्प वध के लिए होता है मरणांत वध के लिए होता है, आयुष्मन् श्रमण! वैसे ही कर्म-पुद्गल कर्म-रूप में परिणत होते हैं, इसलिए कर्म अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। इसी प्रकार नैरयिकों की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। ४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् विहरण करने लगे। तीसरा उद्देशक कम-पद ४४. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! कर्म-प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! कर्म-प्रकृतियां आठ प्रज्ञप्त हैं जैसे-ज्ञानावरणीय यावत् आंतरायिक। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। ४५. भंते! जीव ज्ञानावरणीय-कर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों का वेदन करता गौतम! आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है-इस प्रकार जैसे पण्णवणा का वेदावेदक उद्देशक (पण्णवणा, पद २७) निरवशेष वक्तव्य है। वेद-बंध पद (पण्णवणा, पद २८) प्रकार, बंध-वेद पद (पण्णवणा, पद २५) भी उसी प्रकार, बंधा-बंध पद (पण्णवणा, पद २४) भी उसी प्रकार वक्तव्य है, यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। ४६. भंते! वह ऐसा ही है, भंते वह ऐसा ही है, यह कहकर यावत् विहरण करने लगे। ४७. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी दिन राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद-विहार करने लगे। अर्श-छेदन में वैद्य का क्रिया-पद ४८. उस काल और उस समय में उल्लूकातीर नामक नगर था–वर्णक। उस उल्लूकातीर नगर ५९५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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