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________________ श. १५ : सू. १८६ भगवती सूत्र पहली रत्नप्रभा-पृथ्वी में उत्कृष्ट काल-स्थिति वाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर संज्ञी जीव के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर असंज्ञी जीव के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी इस पहली रत्नप्रभा-पृथ्वी में पल्योपम के असंख्येयभाग स्थिति वाली नरक में नैयिक के रूप में उपपन्न होगा। . वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर जो ये खेचर (पक्षी) के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी, इन जीवों के रूप में अनेक शत-सहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो भुजपरिसर्प (हाथों के बल चलने वाले गोह आदि) जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-गोह, नेवला, जैसा पण्णवणा (प्रथम)-पद (१/७६) में बताया गया है यावत् जाहक तक चतुष्पद वाले प्राणी हैं, उनमें अनेक शत-सहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो उरपरिसर्प जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे–सांप, अजगर, आशालिका और महोरग हैं, उनमें अनेक शत-सहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो चतुष्पद जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-एक खुर वाले (घोड़ा आदि), दो खुर वाले (बैल आदि), गण्डीपद (हाथी आदि) और सनख-पद (शेर आदि) हैं, उनमें अनेक शत-सहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो जलचर जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे—मत्स्य, कछुआ यावत् सुसुमार (मगरमच्छ) तक पण्णवणा, १/५५ हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो चतुरिन्द्रिय जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-अन्धिका, पोत्तिका, जैसा पण्णवणा (प्रथम)-पद (१/५१) में बताया गया है यावत् गोमयकीटक (गोबर का कीड़ा) तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो त्रीन्द्रिय जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-उपचित यावत् हस्तिसुण्डी ५८६
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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