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________________ श. १५ : सू. १५२-१५४ भगवती सूत्र १५२. अयि सिंह! श्रमण भगवान् महावीर ने सिंह अनगार को इस प्रकार कहा-सिंह! ध्यानांतर में वर्तमान तुम्हारे इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोग-आतंक प्रकट हुआ-उज्ज्वल यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। अन्यतीर्थिक कहते हैं-छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। यह इस प्रकार के महान् मनोमानसिक दुःख से अभिभूत होकर तुम आतापन-भूमि से नीचे उतर कर, जहां मालुकाकच्छ था, वहां आकर, मालुकाकच्छ के भीतर-भीतर अनुप्रवेश कर बाढ स्वर से 'कुहु-कुहु' शब्द करते हुए रुदन करने लगा। सिंह! क्या यह अर्थ संगत है? हां, है। सिंह! यह ऐसा नहीं है कि मंखलिपुत्र गोशाल के तपः-तेज से पराभूत होकर मेरा शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया, उसमें जलन हो गई, मैं छह माह के भीतर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। मैं साढ़े पंद्रह वर्ष तक जिन-अवस्था में गन्धहस्ती के समान विहरण करूंगा। इसलिए सिंह ! तुम मेंढिय-ग्राम नगर, गृहस्वामिनी रेवती के घर जाओ, वहां गृह-स्वामिनी ने मेरे लिए दो कपोत-शरीर-मकोय के फल पकाए हैं। वे मेरे लिए प्रयोजनीय नहीं हैं। उसके पास अन्य बासी रखा हुआ मार्जारकृत अर्थात् चित्रक वनस्पति से भावित, कुक्कुट-मांस-चौपतिया शाक है, वह लाओ, वह प्रयोजनीय है। १५३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर सिंह अनगार हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसका चित्त आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य-युक्त, हर्ष से विकस्वर-हृदय वाला हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर त्वरता-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लिया, हाथ में लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से. शान कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया. प्रतिनिष्क्रमण कर त्वरता-चपलता-और संभ्रम-रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए, जहां मेंढिय-ग्राम नगर था, वहां आया, आकर मेंढिय-ग्राम नगर के बीचोंबीच जहां गृहस्वामिनी रेवती का घर था, वहां आया, आकर रेवती के घर में अनुप्रविष्ट हो गया। १५४. गृहस्वामिनी रेवती ने सिंह अनगार को आते हुए देखा। वह देखकर हृष्ट-तुष्ट हो गई। शीघ्र ही आसन से उठी, उठकर सात-आठ पैर सिंह अनगार के सामने गई। सामने जाकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! आप संदेश दें आपके आगमन का प्रयोजन क्या ५७८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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