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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. १२९-१३२ मंखलिपुत्र गोशाल उत्पन्न - ज्ञान - दशन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। वे इस श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीवक संघ से संपरिवृत होकर आजीवक - सिद्धांत के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। इसलिए कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर मंखलिपुत्र गोशाल को वंदना कर यावत् पर्युपासना कर यह इस प्रकार का व्याकरण पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को अलंकृत कर अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया । प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलते हुए श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण था, वहां आया, वहां आकर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में मंखलिपुत्र गोशाल को हाथ में आम्रफल लेकर मद्यपानक पीते हुए, बार-बार गाते हुए, बार-बार नाचते हुए, बार-बार हालाहला कुंभकारी से अंजलि - कर्म करते हुए, मिट्टी के बर्तन में रहे हुए शीतल आतञ्जल जल से अपने गात्र का परिसिंचन करते हुए देखा, देख कर लज्जित हुआ, उसकी लज्जा प्रगाढ़ होती चली गई । वह धीरे-धीरे पीछे सरक गया। १३०. आजीवक-स्थविरों ने आजीवक-उपासक अयंपुल को लज्जित यावत् पीछे सरकते हुए देखा, देखकर इस प्रकार कहा - अयंपुल ! यहां आओ। १३१. आजीवक-उपासक अयंपुल आजीवक - स्थविरों के इस प्रकार कहने पर जहां आजीवक - स्थविर थे, वहां आया, आकर आजीवक- स्थविरों को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर न अति दूर और न अति निकट - यावत् पर्युपासना करने लगा । १३२. अयि अयुंपुल ! आजीवक- स्थविरों ने आजीवक - उपासक अयंपुल से इस प्रकार कहा - अयंपुल ! पूर्वरात्र - अपररात्र काल समय कुटुंब - जागरिका करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - हल्ला नामक कीट किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ? अयंपुल ! तुम्हें दूसरी बार भी इस प्रकार का पूर्ववत् सर्व वक्तव्यता यावत् श्रावस्ती नगरी बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण है, जहां हम हैं, वहां शीघ्र जाऊं । अयंपुल ! का यह अर्थ संगत है ? हां, है । अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशाल हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में हाथ में आम्रफल लेकर यावत् अंजलि - कर्म करते हुए विहार कर रहे हैं। वहां भी भगवान् ने इन आठ चरमों का प्रज्ञापन किया है, जैसे-चरम पान यावत् सब दुःखों का अंत करेगा । अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशाल मिट्टी के बर्तन में रहे हुए, शीतल आतञ्चन-जल से अपने गात्र को आतञ्चन करते हुए विहार कर रहे हैं, वहां भगवान् ने इन ५७३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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