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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. ११०-११४ भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षण-युक्त वचनों से उद्घर्षणा की, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कार-युक्त वचनों से तिरस्कृत किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से विनष्ट हो गए, कभी नष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए। कभी विनष्ट, नष्ट और भ्रष्ट हो गए, तुम आज जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। १११. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है। कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। गोशाल! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, मैंने तुम्हें मुंडित किया, मैंने तुम्हें शैक्ष बनाया, मैंने तुम्हें शिक्षित किया, मैंने तुम्हें बहुश्रुत किया, तुम मेरे प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो। ११२. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया, वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर वह तैजस-समुद्घात से समवहत हुआ, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरका, पीछे सरक कर श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए अपने शरीर से तेज का निसर्जन किया। जिस प्रकार उत्कलिका-वात अथवा मंडलिका-वात पर्वत, भित्ति, स्तम्भ अथवा स्तूप से आवारित अथवा निवारित होती हुई उनका क्रमण नहीं करती और प्रक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर से निकला हुआ तपःतेज उनका क्रमण नहीं करता, प्रक्रमण नहीं करता, गमनागमन करता है, दायीं ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा करता है-प्रदक्षिणा कर वह शक्ति आकाश में ऊंची उछली, वहां से प्रतिहत होकर लौटती हुई उसी मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को जलाती हुई, जलाती हुई उसके भीतर अनुप्रविष्ट हो गई। ११३. मंखलिपुत्र गोशाल ने स्वयं के तेज से अनाविष्ट होने पर श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार कहा-आयुष्मन् काश्यप! मेरे तपः-तेज से अनाविष्ट होकर तुम्हारा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन पैदा हो जाएगी, तुम छह मास के भीतर छद्मस्थ-अवस्था में मृत्यु को प्राप्त करोगे। ११४. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! तुम्हारे तपः-तेज से पराभूत होकर, मेरा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त नहीं होगा, उसमें जलन पैदा नहीं होगी, मैं छह माह के भीतर मृत्यु को प्राप्त नहीं करूंगा। मैं अन्य सोलह वर्ष तक जिन-अवस्था में गंध-हस्ती की भांति विहरण करूंगा। गोशाल! स्वयं अपने तपः-तेज से पराभूत होकर तुम्हारा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन पैदा हो जाएगी, तुम सात दिन के भीतर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करोगे। ५६९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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