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________________ भगवती सूत्र श. १५ : सू. ७६-७९ गोशाल के तेजोलेश्या का उत्पत्ति-पद ७६. मंखलिपुत्र गोशाल एक मुट्ठी भर कुल्माष पिण्डिका और एक चुल्लु भर पानी पीता है, निरन्तर बेले बेले की तपस्या करता है, आतापन भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है। मंखलिपुत्र गोशाल छह माह के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजो -लेश्या वाला हो गया। गोशाल की पूर्व-कथा का उपसंहार-पद ७७. मंखलिपुत्र गोशाल के पास एक दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए, जैसे-शान, कलंद, कर्णिकार, अच्छिद, अग्नि-वैश्यायन और अर्जुन गोमायुपुत्र। उन दिशाचरों ने अष्टविध महानिमित्त का पूर्वगत के दसवें अंग से अपने-अपने मति दर्शन से निर्वृहण किया। नि!हण कर मंखलिपत्र गोशाल के सामने उपस्थित किया। उस अष्टांग महानिमित्त के सामान्य अध्ययनमात्र से सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्वों के लिए इन छह अनतिक्रमणीय व्याकरणों का व्याकरण किया, जैसे-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन तथा मरण। मंखलिपुत्र गोशाल अष्टांग महानिमित्त के सामान्य अध्ययनमात्र से श्रावस्ती नगर में अजिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् न होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली न होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन न होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ विहरण करने लगा। इसलिए गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं है, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी नहीं है, केवली होकर केवली-प्रलापी नहीं है, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी नहीं है। अजिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। मंखलिपुत्र गोशाल अजिन होकर जिन-प्रलापी है, अर्हत् न होकर अर्हत्-प्रलापी है, केवली न होकर केवली-प्रलापी है, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञ-प्रलापी है, जिन न होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हआ विहार कर रहा है। ७८. वह विशालतम परिषद् श्रमण भगवान् महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई। श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में लौट गई। गोशाल का अमर्ष-पद ७९. श्रावस्ती नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी, यावत् जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है, वह मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं-मंखलिपुत्र गोशाल के पिता का नाम मंखली था। उसकी जाति मंख थी। मंख की पूर्ववत् सर्ववक्तव्यता यावत् जिन न होकर जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशाल जिन न होकर जिन-प्रलापी है यावत् विहार कर रहा है। मंखलिपुत्र गोशाल अजिन होकर जिन-प्रलापी है, यावत् विहार कर रहा है। ५५९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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