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________________ श. १५ : सू. २६-३२ भगवती सूत्र वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अन्तराल में 'अहो ! दानम् अहो ! दानम्' की उद्घोषणा हुई । २७. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं प्ररूपण करते हैं - देवानुप्रिय ! गृहपति विजय धन्य है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतार्थ है! देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतपुण्य ( भाग्यशाली ) है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतलक्षण (लक्षण- संपन्न) है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय ! गृहपति विजय ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस गृहपति विजय के घर में तथारूप साधु के साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात वृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में 'अहो ! दानम् अहो ! दानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है, विजय गृहपति ने, विजय गृहपति ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। २८. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां गृहपति विजय का घर था, वहां आया, आकर गृहपति विजय के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि को देखा । गृहपति विजय के घर मुझे प्रतिनिष्क्रमण करते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट हुआ। जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला- भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं । २९. गौतम ! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं मौन रहा । दूसरा मासखमण-पद ३०. गौतम ! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालन्दा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर दूसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा । ३१. गौतम ! मैंने दूसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए गृहपति आनन्द के घर में मैंने अनुप्रवेश किया । - ३२. गृहपति आनन्द ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण - मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर - हृदय वाला हो गया । वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतर कर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात ५५१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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