SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवां शतक गोशालक-पद १. उस काल और उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में कोष्ठक नाम का चैत्य था-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी में आजीवक-उपासिका हालाहला नाम की कुंभकारी रहती थी आढ्य यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय। आजीवक-सिद्धान्त में यथार्थ को सुनने वाली, ग्रहण करने वाली, (आजीवक-सिद्धान्त के) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि-मज्जा वाली, 'आयुष्मन्'! यह आजीवक-सिद्धांत यथार्थ है, यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है। (ऐसा मानने वाली वह) इस प्रकार आजीवक-सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए रह रही थी। २. उस काल और उस समय में चौबीस वर्ष-पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशाल उस हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीवक-समुदाय से संपरिवृत होकर आजीवक-सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था। ३. एक समय मंखलिपुत्र गोशाल के पास ये छह दिशाचर अकस्मात् आए, जैसे-शान, कलन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवैश्यायन और अर्जुन गोमायुपुत्र। ४. इन छह दिशाचरों ने अष्टविध महानिमित्त का पूर्वगत के दसवें अंग से अपने-अपने मतिदर्शन से नि!हण किया। निर्वृहण कर मंखलिपुत्र गोशाल के सामने उपस्थित किया। ५. उस अष्टांग महानिमित्त के किसी सामान्य अध्ययन मात्र से सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्वों के लिए इन छह अनतिक्रमणीय व्याकरणों का व्याकरण किया, जैसे-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित तथा मरण । ६. वह मंखलिपुत्र गोशाल महानिमित्त के किसी सामान्य अध्ययन मात्र से श्रावस्ती नगरी में अजिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् न होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली न होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन न होकर जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहरण करने लगा। ७. उस श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चोराहों, चोहटों, चार द्वार वाले स्थानों, जनमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशालक जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? ५४७
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy