SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १४ : उ. १० : सू. १४३-१५३ १४३. भंते! जैसे केवली बालते हैं, व्याकरण करते हैं, वैसे सिद्ध भी बोलते हैं? व्याकरण करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। १४४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं, वैसे सिद्ध नहीं बोलते, व्याकरण नहीं करते? गौतम! केवली सउत्थान, सकर्म, सबल, सवीर्य, सपुरुषकार और सपराक्रम होता है। सिद्ध अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं वैसे सिद्ध नहीं बोलते, व्याकरण नहीं करते। १४५. भंते ! केवली उन्मेष करते हैं? निमेष करते हैं? हां, उन्मेष करते हैं, निमेष करते हैं। १४६. भंते! जैसे केवली उन्मेष-निमेष करते हैं, वैसे सिद्ध भी उन्मेष-निमेष करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। पूर्ववत्। इसी प्रकार सिद्ध आकुंचन, प्रसारण, इसी प्रकार स्थान, शय्या, निषद्या नहीं करते हैं। १४७. भंते! केवली ‘इस रत्नप्रभा-पृथ्वी को यह रत्नप्रभा-पृथ्वी है'-ऐसा जानता-देखता है ? हां, जानता-देखता है। १४८. भंते! जैसे केवली 'इस रत्नप्रभा-पृथ्वी को यह रत्नप्रभा-पृथ्वी है'-ऐसा जानता देखता है वैसे सिद्ध भी ‘इस रत्नप्रभा-पृथ्वी को यह रत्नप्रभा-पृथ्वी है' यह जानता-देखता है? हां, जानता-देखता है। १४९. भंते! केवली 'शर्कराप्रभा-पृथ्वी को यह शर्कराप्रभा-पृथ्वी है'-ऐसा जानता-देखता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् केवली अधःसप्तमी-पृथ्वी को जानता-देखता है। १५०. भंते! केवली 'सौधर्म-कल्प को सौधर्म-कल्प है' ऐसा जानता-देखता है? हां, जानता-देखता है। पूर्ववत्। इसी प्रकार केवली ईशान को, इसी प्रकार यावत् अच्युत को जानता-देखता है। १५१. भंते! केवली 'ग्रैवेयक-विमान को यह ग्रैवेयक-विमान है' ऐसा जानता-देखता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार केवली अनुत्तर-विमान को जानता-देखता है। १५२. भंते! केवली 'ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी को यह ईषत्-प्रागभारा-पृथ्वी है' ऐसा जानता -देखता है? पूर्ववत्। १५३. भंते! केवली ‘परमाणु-पुद्गल को यह परमाणु-पुद्गल है' ऐसा जानता-देखता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार केवली द्विप्रदेशिक स्कंध को जानता-देखता है, इसी प्रकार यावत् ५४५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy