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________________ भगवती सूत्र श. १४ : उ. ८ : सू. १११-११४ में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है ? गौतम ! अम्मड परिव्राजक प्रकृति से भद्र और उपशान्त है। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृति से प्रतनु हैं। वह मृदु-मार्दव-संपन्न, आलीन ( संयतेन्द्रिय) और विनीत है। वह निरंतर बेले- बेले (दो-दो दिन का उपवास) के तप की साधना करता है। दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन-भूमि में आतापना लेता है। उसके शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि से किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ । उसके होने पर ईहा, ऊहापोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए वीर्य - - लब्धि, वैक्रिय-लब्धि और अवधि-ज्ञान-लब्धि उत्पन्न हुई । वह अम्मड़ परिव्राजक उस वीर्य - लब्धि, वैक्रिय-लब्धि और अवधि- ज्ञान-लब्धि के होने पर जनसमूह को विस्मय में डालने के लिए कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अम्मड़ परिव्राजक कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है । ११२. भंते! क्या अम्मड परिव्राजक देवानुप्रिय के पास मुंड हो, अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? यह अर्थ संगत नहीं है । गौतम ! श्रमणोपासक अम्मड परिव्राजक जीव-अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाला, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं निश्चल, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, महोरग आदि देव गणों के द्वारा निर्ग्रथ-प्रवचन से अविचलनीय, इस निर्ग्रथ-प्रवचन में शंका- रहित, कांक्षा-रहित, विचिकित्सा - रहित, यथार्थ को सुनने वाला, ग्रहण करने वाला, उस विषय में प्रश्न करने वाला, उसे जानने वाला, उसका विनिश्चय करने वाला, प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि मज्जा वाला, आयुष्मन् ! यह निर्ग्रथ-प्रवचन यथार्थ है, यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है (ऐसा मानने वाला) चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करने वाला, श्रमण-निर्ग्रथों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन, औषध-भैषज्य, प्रातिहार्य पीठ- फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाला, बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा है यावत् दृढप्रतिज्ञ ( उववाई, सू. १२१ - १५४ ) की भांति अंत करेगा । अव्याबाध-देव- शक्ति - पद ११३. भंते! अव्याबाध-देव अव्याबाध - देव हैं ? हां, हैं । ११४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- अव्याबाध-देव अव्याबाध- देव हैं ? गौतम ! प्रत्येक अव्याबाध - देव प्रत्येक मनुष्य के प्रत्येक अक्षि-पत्र पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव -द्युति, दिव्य देवानुभाग, दिव्य बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि का उपदर्शन करने में समर्थ ५४०
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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