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________________ भगवती सूत्र श. १४ : उ. ५,६ : सू. ६८-७४ को ग्रहण किए बिना तिर्यक् पर्वत अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं है। ६९. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या बाहरी पुद्गलों को ग्रहण कर तिर्यक् पर्वत अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। ७०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। छठा उद्देशक नैरयिक का आहार-आदि-पद ७१. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! नैरयिक किन द्रव्यों का आहार करते हैं? उनका परिणमन किस रूप में होता है? उनकी योनि क्या है? उनकी स्थिति का आधार क्या है? गौतम! नैरयिक पुद्गल-द्रव्यों का आहार करते हैं। शरीर-पोषक पुद्गल के रूप में उनका परिणमन होता है। योनि पौद्गलिक है। स्थिति का आधार आयुष्य-कर्म के पुद्गल हैं। नैरयिक जीव कर्म का बंधन करने वाले हैं। उनके नारक होने का हेतु कर्म है। कर्म-पुद्गल के कारण उनकी नारक के रूप में अवस्थिति है और कर्म के कारण ही वे विपर्यास-पर्यायान्तर को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। ७२. भंते! क्या नैरयिक वीचि-द्रव्यों का आहार करते हैं? अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं? गौतम! नैरयिक वीचि-द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि-द्रव्यों का भी आहार करते हैं। ७३. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं? गौतम! जो नैरयिक एक-प्रदेश-न्यून द्रव्य का भी आहार करते हैं, वे वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। जो नैरयिक प्रतिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- नैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। देवेन्द्र का भोग-पद ७४. भंते! जब देवराज देवेन्द्र शक्र दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं? गौतम! तब वे देवराज देवेन्द्र शक्र एक महान् चक्र-नाभि के प्रतिरूप का निर्माण करते हैं एक लाख योजन लंबा-चौड़ा और उसका परिक्षेप तीन लाख यावत् साढे तेरह अंगुल से ५३१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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