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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ २९. कूड कपट करे में पापीये रे, झूठोइ सासण दीयो थाप रे।
अणहूंतो तीर्थंकर वाज्यो लोक में रे, वीर नों सासण दीयों उथाप रे॥
३०. गोसाला ने वीर वचायों तठा पछे रे, घणां जीवां रें हुवो विगाड रे।
ओ पापी धाडायत हूवो धर्म रो रे, इण गुण तों न कीधो मूल लिगार रे॥
३१. गोसाला पापीडो वचीयां पछे रे, तिण कीधा पीपाडे अनेक अकाज रे।
तिण दुष्टी नें वचायां धर्म किहां थकी रे, विकलां में मूल न आवे लाज रे।।
३२. गोसाला ने बचायां धर्म कहें तके रे,
गोसाला रा केडायत जांण रे। त्यां धर्म न जाण्यों श्री जिणराज रो रे,
यूं ही बूडे अग्यांनी कर कर तांण रे॥
३३. जो धर्म होसी गोसाला नें वचावीयां रे,
तो छ ही काय वचायां होसी धर्म रे। जो उवे जीव वचा धर्म गिणे नही रे,
तो विकलां री सरधा रो नीकल्यों भर्म रे॥
३४. गोसाला ने वीर वचायों जिण विधे रे,
श्रावक नें तिण विध वचावें नांहि रे। कहे छै तिण हीज विध करें नही रे,
तो धूर , त्यांरी सरधा मांहि रे॥
३५. पेट दुखे , सो श्रावकां तणा रे, जूदा हुवें छे जीव ने काय रे।
साध पधारया छे तिण अवसरे रे, त्यारें हाथ फेरें तो साता थाय रे॥
३६. लबदधारी तों साध पधारया देख ने रे, ग्रहस्थ बोल्या छे इम वाय रे।
हाथ फेरो त्यांरा पेट उपरें रे, नही फेरो तो श्रावक जीवा जाय रे॥