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________________ अनुकम्पा री चौपई २९९ ६८. कोई मनुष्य जीवन के अंतिम समय अपना धन स्थानक के लिए दान देता है। यदि वह इसे पाप समझता है तो परभव जाते समय ऐसा अकार्य क्यों करता है ? ६९. अपना धन देकर जीवों को मरवाया - यह अर्थ हिंसा हुई हो, ऐसा नहीं है । अनर्थ हिंसा भी उसको जाना हो, ऐसा नहीं लगता। संभव यही लगता है कि उसने उसमें धर्म समझा है । ७०. हिंसा युक्त कार्य में दया और दया युक्त कार्य में हिंसा नहीं हो सकती । दया और हिंसा की क्रिया इतनी पृथक् है जितनी कि धूप और छाया । ७१. और वस्तुओं में मिलावट हो सकती है, किन्तु दया में हिंसा की मिलावट नहीं हो सकती। जैसे पूर्व और पश्चिम दिशा के मार्ग मेल कैसे खा सकते हैं ? | ७२. कुछ लोग दया और हिंसा इन दोनों से होने वाली संयुक्त क्रिया को "मिश्रक्रिया" कहते हैं । उसके लिए असत्य हेतु लगाते हैं । वे मूढ़ मिथ्यात्वी लोग मिश्रक्रिया की स्थापना करने के लिए भोले लोगों को भरमाते हैं। ७३. यदि हिंसा करने में मिश्रधर्म होता है तो अठारह प्रकार के सभी पापों के करने से भी मिश्रधर्म होगा। एक फिर (बदल) जाने से अठारह ही फिर जाते हैं। बुद्धिमान लोगों को इस पर विचार करना चाहिए । ७४. जैन धर्म की नींव दया पर आधारित है। जो खोजी ( गवेषक) होते हैं, वे ही इसे पा सकते हैं । यदि हिंसा में धर्म हो सकता है तो जल मथने से भी घी निकल सकता है। ७५. सं. १८४४, फाल्गुन शुक्ला नवमी, रविवार के दिन बगड़ी शहर में दया धर्म की प्रभावना के लिए इस गीत की रचना की है।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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