SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १४. त्यांमें केयक तो न्यातीला आपरा रे, केयक निज पिरवार। केयक नगरी मांहें हुंता मोटका रे, त्यांरों काण कुरब इधिकार।। १५. त्यां सगलां में भरत नरिंद रूडी रीत सूं रे, दीयों घणों सनमांन। वळे सतकार दीयो सगलां भणी रे, जथाजोग भरत राजांन।। १६. सीख दीधी सगलां में संतोषनें रे, मीठे वचन बोलाय। सेवग में सांमी री रीत सू रे, घणा राजी करनें ताहि।। १७. वनीता राजघ्यांनी रे बाहिरे रे, उतरीया भरत जी आय। ते खबर हुई वनीता नगरी मझे रे, हरष हूवों , घर घर माहि।। १८. उछाव लागों लोकां रे अति घणो रे, देखण रो लग रह्यो ध्यान। उछछल होय रह्या , अति घणा रे, जाणक देखां भरत राजांन।। १९. घणा लोक माहोमा मिलनें इम कहें रे, भलां उगो दिन आज। भरतजी नगरी वनीता आवीया रे, भरत खेत्र छ ही खंड साज। २०. राजा देस साहजे घर आवीया रे, दुख नहीं दे किणने लिगार। वळे सार संभाल करें सर्वलोक री रे, तिणसूं हरखें छे घर घर मझार।। २१. पुन परतापें हरख सारां तणे रे, तिण हरख ने कारमों जाण। ते हरष छोडेनें चारित लेवसी रे, कर्म काटे जासी निरवांण।।
SR No.032414
Book TitleAcharya Bhikshu Aakhyan Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy