________________
१३४
भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ६. पाणी उपर प्रवाहण चालें, पाट पाटलादिक कर घालें।
जंत्र घरटीयादिक अनेक, ते पिण करवारी बुध वशेख।।
७. इण कालें घरादिक कीजें, इण कालें घरादिक न कीजें।
इण काल कीधां आछो थाय, इण काले कीधो मँडो होय जाय।।
८. जिण काले जे जे करणों, ते पिण जाणें छे निरणों।
इसरों काल तणो , जांणों, शबद सास्त्र में चुतर सुजाण।।
९. विरख वेलडी ने जाणे, गुण आंगुण त्यांरा पिछांणे।
त्यांनें निपजाय जाणे छे ताहि, ते पिण कला घणी तिण माहि।।
१०. सोलें प्रसाद करवा ने ताहि, चुतराइ घणी तिण माहि।
त्यांरा लखण गुणां री विध रूडी, ते पिण जाणे सर्व पूरी।।
११. वळे वास्तूक सासत्र माहि, चोसठ विकलप कह्या छे ताहि।
त्यांरो पिण जाण पिछांण, एहवो छे चुतर सुजाण।।
१२. नंदावर्त्त ने वर्धमान जांण, स्वस्तिक तीजों वखांण।
ए तीइ साथीया जात एह, त्यांरा गुण अवगुण जाणे तेह।।
१३. एक थंभो घर कर जाणे तेह, देवादिक घर कर जांणे एह।
वाहण सेवकादिक अनेक, त्यांने करवाने कुसल विशेख।
१४. इत्यादिक गुण अथाह्यो, वढइरत्न तिण माह्यों।
ओ तो थलपती रत्न , रूडो, अगाढ गुण कर पूरो।।
१५. सहंस देवता तिणरें पास, अधिष्टायक रहें छे तास।
तिणरा कार्य में साहजकारी, सेवग जिम काम करवाने त्यारी।।
१६. तिण पूर्व पुन उपाया, इण भव माहे उदें आया।
ते सगलां में लागें हितकारी, इसडो वढइरत्न , सारी।