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________________ 4. वेवेष्टि इति विष्णुः। 5. आवां धान्य मिमीवहे। 6. युवां ह्यः अबिभेतम्। 7. अहं न बिभेमि। 8. बिभर्ति इति भरतः। 9. पात्रम् उदकेन भरिष्यसि किम्। 10. पुष्करस्रजं अधत्त। 11. दाता द्रव्यं ददाति। 12. अहम् अददाम्। 13. सर्वे वयं दद्मः। 14. स नैव दास्यति। 15. वयं व्याघ्राद् बिभीमः। 16. धान्यं कुडवेन* मिमीते। व्यापता है इसलिए विष्णु कहते हैं। . हम दोनों धान मापते हैं। तुम दोनों कल डर गये। मैं नहीं डरता। पोषन करता है इसलिए भरत कहते हैं। क्या तू जल से बर्तन करेगा ? कमलमाला धारण की। दाता धन देता है। मैंने दिया। सब हम देते हैं। वह नहीं देगा। हम शेर से डरते हैं। धान कुडवे से मापता है। पाठ 55 चतुर्थ गण के धातु चतुर्थ गण के धातुओं के वर्तमान और भूतकालों के रूपों में 'य' लगता है। शुच (पूतीभावे) = शुद्ध करना-उभयपद वर्तमान-शुच्यति, शुच्यतः, शुच्यन्ति। शुच्यसि, शुच्यथः, शुच्यथ। शुच्यामि, शुच्यावः, शुच्यामः। भूत-अशुच्यत्, अशुच्यताम्, अशुच्यन्। अशुच्यः, अशुच्यतम्, अशुच्यत। अशुच्यम्, अशुच्याव, अशुच्याम। भविष्य-शोचिष्यति। शोचिष्यसि। शोचिष्यामि। आत्मनेपद के रूप वर्तमान-शुच्यते, शुच्येते, शुच्यन्ते। शुच्यसे, शुच्येथे, शुच्यध्ये। शुच्ये, शुच्यावहे, शुच्यामहे। * चार सेर का एक कुडव होता है।
SR No.032413
Book TitleSanskrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShripad Damodar Satvalekar
PublisherRajpal and Sons
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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