SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16. अति-उत्कर्ष, आधिक्य, पूजन, उल्लंघन । 17. सु - उत्तमता । 18. उत्-उत्कृष्टता, प्रकाश, शक्ति, निन्दा, उत्पत्ति । 19. अभि- मुख्यता, कुटिलता । 20. प्रति - भाग, खण्डन । 21. परि - परिणाम, शोक, पूजा, निन्दा, भूषण । 22. उप- समीपता, सादृश्य, संयोग, वृद्धि, आरम्भ । इन अर्थों के सिवाय और भी बहुत से अर्थ हैं परन्तु यहां मुख्य अर्थ ही दिए ये हैं । इनके इस प्रकार अर्थ होने से ही इनके पीछे रहने के कारण धातुओं के अर्थ बिलकुल बदल जाते हैं 1. (वि) (चर) = भ्रमण करना-विचरति । विचरिष्यति । व्यचरत् । 2. सं (चर्) घूमना । संचरति । संचरिष्यति । समचरत् । 3. सं (चल) चलना । संचलति । संचलिष्यति । समचलत्। 4. अनु (चर्) = पीछे जाना, नौकरी करना - अनुचरति । अनुचरिष्यति । अन्वचरत् । 5. प्रचर - अर्थ और रूप पूर्ववत् । = = 6. प्रचल 7. उच्चर्= ऊपर जाना, बोलना - उच्चरति । उच्चरिष्यति । उदचरत् । 8. उच्चल्= चलना - उच्चलति । 9. परि (चर् ) = चलना, नौकरी करना - परिचरति । परिचरिष्यति । पर्यचरत् । 10. प्रतप्= तपना, गरम होना, प्रकाशना - प्रतपति । प्रतप्स्यति । प्रातपत् । = 11. संतप्= तपना, क्रोध करना - संतपति । संतप्स्यति । समतपत् । 12. अवबुध= जागरित होना - जानना, अवबोधति । अवाबुधत् । 13. प्रबुध = निद्रा से जागरित होना - प्रबोधति । प्राबुधत् । 14. प्रस्था ( प्रतिष्ठ) = प्रवास के लिए निकलना - प्रतिष्ठते । प्रस्थास्यते । प्रातिष्ठत । (आत्मनेपद) 15. संस्था (संतिष्ठ) = रहना-संतिष्ठते । संस्थास्यते। समतिष्ठत् (आत्मनेपद) । 16. विस्मृ भूलना - विस्मरति । विस्मरिष्यति । व्यस्मरत् । / इस प्रकार उपसर्ग के साथ धातुओं के रूप होते हैं । भूतकाल में उपसर्ग के पश्चात् अ, और अ के पश्चात् धातु और प्रत्यय लगते हैं । वि+अ+स्मर्+अ+त् व्यस्मरत् । सं+अ+तिष्ठ्+अत = समतिष्ठत । = अनु+अ+बोध्+अ+त् = अन्वबोधत् । इ और उसके पश्चात् विजातीय स्वर आने से क्रमशः यू और व् होते हैं । = व्य। अनु+अ = अन्व । प्रति+अ = प्रत्य। सु+अ = स्व | जैसे - वि+अ 181
SR No.032413
Book TitleSanskrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShripad Damodar Satvalekar
PublisherRajpal and Sons
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy