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क्षय होने का उल्लेख मिलता है
प्राणायामादियुक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत्। अयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुद्भवः ।।
हठयोग प्रदीपिका गा. १६ हठयोग के अभ्यास से आठ अवस्थाओं का निर्माण होता हैवपुः कृशत्वं वदने प्रसन्नता नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले। अरोगता बिंदुजयोऽग्निदीपनं नाडीविशुद्धिर्हठयोगलक्षणम्।।
हठयोग प्रदीपिका २.७६ १. शरीर की कृशता २. प्रसन्नता ३. स्पष्ट वाक्
४. निर्मल चक्षु ५. आरोग्य
६. बिंदु-जय ७. अग्निदीपन
८. नाड़ी-विशुद्धि हठयोग में आसन और प्राणायाम का विस्तृत विवेचन है।
जैन योग में राजयोग, हठयोग आदि सबका समावेश है। योग से व्रत की चेतना जाग्रत होती है अथवा व्रत की चेतना जाग्रत होने पर ध्यान शक्ति का विकास होता है। प्रस्तुत ग्रंथ 'जैन योग की वर्णमाला' में व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, अनुप्रेक्षा आदि समग्र तत्त्वों का समावेश है। इसमें समग्रता का स्पर्श या निदर्शन किया गया है। इस निदर्शन के आधार पर संबद्ध ग्रंथों का स्वतंत्र अध्ययन किया जा सकता है। उससे योग-साधना के अनेक नए आयाम विकसित हो सकते हैं।