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काम है दुःख का मूल सब जीवों के और तो क्या, देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख हैं, वह काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस दुःख का अंत पा जाता है।
जैसे किंपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से मनोरम होते हैं और परिपाक के समय जीवन का अंत कर देते हैं, कामगुण भी विपाक काल में ऐसे ही होते हैं।
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।। जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वैण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जीविय पञ्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे।।
उत्तरज्झयणाणि ३२.१६,२०
२७ फरवरी २००६