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अखण्ड आत्मा
शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र जीव से भिन्न नहीं हैं। इस अवस्था में उनका पृथक्-पृथक् व्यपदेश क्यों किया जाता है? एक अखण्ड आत्मा का ही प्रतिपादन करना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान एक व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा किया गया है। __ जैसे अनार्य (म्लेच्छ) को समझाने के लिए अनार्य भाषा का प्रयोग आवश्यक होता है वैसे ही परमार्थ को समझाने के लिए व्यवहार की भाषा का प्रयोग आवश्यक होता है।
जह णवि सक्कमणज्जो अणवज्जभासं विणा दु गाहेहूँ। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।
समयसार ८
१६ फरवरी २००६