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प्रस्तुति 'अध्यात्म विद्या विद्यानाम्' गीता का यह सूक्त इस ओर संकेत करता है कि भारतीय विद्याओं में अध्यात्म विद्या का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अध्यात्म-साधना की अनेक शाखाओं का विस्तार हुआ है। उनमें एक शाखा है योग विद्या। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अध्यात्म विद्या जितनी प्राचीन है उतनी ही प्राचीन है योग विद्या। अर्हत् आदिनाथ अध्यात्म विद्या के प्रवर्तक हैं। श्रीमद्भागवत् में ऋषभ के पुत्रों को अध्यात्म विद्या विशारद बतलाया गया है। योग विद्या का मूल आधार आत्म विद्या है। आत्मा का साक्षात्कार साध्य है और योग विद्या उसका साधन है।
वर्तमान में पातञ्जल योग दर्शन योग विद्या का सर्वोपरि व्यवस्थित ग्रंथ है। जैन आगमों में योग के प्रकीर्ण तत्त्व मिलते हैं, किन्तु सर्वाङ्ग परिपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। 'ध्यानविभक्ति' नामक ग्रंथ का उल्लेख मिलता है, पर आज वह उपलब्ध नहीं है। 'ध्यानशतक' और 'कायोत्सर्ग शतक', ये दोनों ग्रंथ योग साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आचार्य शुभचंद्र का 'ज्ञानार्णव', आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र और आचार्य रामसेन का 'तत्त्वानुशासन'