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निष्कर्मदर्शी आत्म दर्शन में बाधक तत्त्व दो हैं-राग और द्वेष। ये आत्मा पर कर्म का सघन आवरण डालते रहते हैं। इसलिए उसका दर्शन नहीं होता। राग-द्वेष के छिन्न हो जाने पर आत्मा निष्कर्म हो जाता है। निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ किए जा सकते हैं-१. आत्मदर्शी, २. मोक्षदर्शी, ३. सर्वदर्शी, ४. अक्रियादी।
महावीर की साधना का मूल आधार है-अक्रिया। सत् वही होता है, जिसमें क्रिया होती है। आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है-चैतन्य का व्यापार। उससे भिन्न क्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती। अस्वाभाविक क्रिया का निरोध ही आत्मा की स्वाभाविक क्रिया के परिवर्तन का रहस्य है। स्वाभाविक क्रिया के क्षण में राग-द्वेष की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है।
संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष आत्मदर्शी हो जाता है।
पलिच्छिंदिया णं णिक्कम्मदंसी।
आयारो ३.३५
२१ दिसम्बर २००६