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________________ Cy उन्मनी भाव एक योगी, जो रमणीय रूपों को देखता है, मधुर और मनोरम वाणी को सुन रहा है, सुगंधित पदार्थों को सूंघ रहा है, स्वादिष्ट पदार्थों का आस्वाद ले रहा है, कोमल पदार्थों का स्पर्श कर रहा है और चित्त की वृत्तियों को रोक नहीं रहा है, वह औदासीन्य (निर्ममत्व भाव ) की अनुभूति करता है तो उसकी विषयों के प्रति होने वाली भ्रांति नष्ट हो जाती है। वह योगी बाह्य और आंतरिक समस्त चिंता और चेष्टा से मुक्त होकर तन्मय भाव को प्राप्त कर उन्मनी भाव की ओर चला जाता है। रूपं कान्तं पश्यन्नपि, शृण्वन्नपि गिरं कलमनोज्ञाम् । जिघ्रन्नति च सुगन्धीन्यपि भुञ्जानो रसान् स्वादून् ।। भावान् स्पृशन्नपि मृदूनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम् । परिकलितौदासीन्यः, प्रणष्टविषयभ्रमो नित्यम् ॥ बहिरन्तश्च समन्तात् चिन्ता - चेष्टापरिच्युतो योगी । तन्मयभावं प्राप्तः कलयति भृशमुन्मनीभावम् ।। योगशास्त्र १२.२३-२५ DGDG २४ नवम्बर २००६ ३५४ DDC La Jol
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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