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________________ इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार (१६) भाव मन का ग्राह्य-विषय है । जो भाव राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ भावों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। Wo मन भाव का ग्रहण करता है । भाव मन का ग्राह्य है। जो भाव राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाह । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु || उत्तरज्झयणाणि ३२.८७,८८ १ नवम्बर २००६ ३३१EDG GG
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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