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________________ इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार (१४) जो स्पर्श में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त होकर दूसरे की स्पर्शवान् वस्तुएं चुरा लेता है। __ वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और स्पर्शपरिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेई तुहिँ । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से। उत्तरज्झयणाणि ३२.८१,८२ ३० अक्टूबर २००६ ..............................-3२६ २७. २.......................२
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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