SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार (११) जो रस में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में आसक्तउपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त होकर दूसरे की रसवान् वस्तुएं चुरा लेता है। वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रसपरिग्रह में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के कारण उसके मायामृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। रसे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुटिं। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से। ___ उत्तरज्झयणाणि ३२.६८,६६ २७ अक्टूबर २००६ FD4........DEHP-RRB-३२६) २६.DGADGADGRIDGE
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy