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स्वसंवेदन (४) संवित्ति ज्ञानरूप चेतना है। शरीर से उसका प्रतिभास नहीं होता। वह स्वतंत्ररूप से अपने अस्तित्व का प्रतिभास करा देती है।
समाधि की अवस्था में यदि योगी को बोधात्मा का अनुभव नहीं होता तो वह ध्यान नहीं है, मूर्छा है।
वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येन चकासतो। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि।। समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नाऽनुभूयते। तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावन्मोह एव सः।।
तत्त्वानुशासन १६८,१६६
१७ अगस्त २००६