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अनुप्रेक्षा का फल भंते! अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिंतन) से जीव क्या प्राप्त करता है?
अनुप्रेक्षा से जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के गाढ-बंधन से बन्धी हुई प्रकृतियों को शिथिल-बंधन वाली कर देता है, उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, उनके तीव्र अनुभाव को मन्द कर देता है। उनके बहुप्रदेशाग्र को अल्प-प्रदेशाग्र में बदल देता है। आयुष-कर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता। असातवेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता और अनादि-अनंत लम्बे-मार्ग वाली तथा चतुर्गति-रूप चार अन्तों वाली संसार अटवी को तुरन्त ही पार कर जाता है।
अणुप्पेहाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधनबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्टि इयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पएससग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सियं बंधइ सियं नो बंधइ, असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ।।
उत्तरज्झयणाणि २६.२३
२० जून २००६