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________________ अहिंसा : प्राणातिपात विरमण (२) मन, वचन और काया–कृत, कारित और अनुमोदन इनके योग से हिंसा के नौ विकल्प बनते हैं। जो दूसरों को मारने के लिए सोचे कि मैं इसे कैसे मारूं-वह मन के द्वारा हिंसा करता है। वह इसे मार डाले-ऐसा सोचना मन के द्वारा हिंसा कराना है। कोई किसी को मार रहा हो-उससे संतुष्ट होना, राजी होना मन के द्वारा हिंसा का अनुमोदन है। वैसा बोलना जिससे कोई दूसरा मर जाए-वचन से हिंसा करना है। किसी को मारने का आदेश देना-वचन से हिंसा कराना है। अच्छा मारा यह कहना वचन से हिंसा का अनुमोदन है। स्वयं किसी को मारे यह कायिक हिंसा है। हाथ आदि से किसी को मरवाने का संकेत करना-काया से हिंसा कराना है। कोई किसी को मारे-उसकी शारीरिक संकेतों से प्रशंसा करना–काय से हिंसा का अनुमोदन है। सयं मणसा न चिंतयइ जहा वहयामित्ति, वायाएवि न एवं भणइ-जहा एस वहेज्जउ, कायण सय न परिहणति, अन्नस्सवि णेत्तादीहिं णो तारिसं भावं दरिसयइ जहा परो तस्स माणसियं णाऊण सत्तोवघायं करेइ, वायाएवि संदेसं न देइ तहा तं घाएहित्ति, कारणवि णो हत्थादिणा सण्णेइ जहा एयं मारयाहि, घातंतंपि अण्णं दट्टणं मणसा तुहिँ न करेइ, वायाएवि पुच्छिओ संतो अणुमई न देइ, कारणावि परेणा पुच्छिओ संतो हत्थुक्खेवं न करेइ। दशजिचू पृ १४२,१४३ ८ अप्रैल २००६
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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