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भाव (२)
जीव का अस्तित्व निरूपाधिक है। उसके उपाधि कर्म के उदय अथवा विलय से होती है, जैसे- ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है, उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी कहलाता है। औदयिक भाव से मनुष्य का बाहरी व्यक्तित्व निर्मित होता है। क्षायोपशमिक भाव से उसके आंतरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
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२० मार्च
२००६
६६